छत्तीसगढ़ी में दोहा:
--संजीव 'सलिल'
हमर देस के गाँव मा, सुन्हा सुरुज विहान.
अरघ देहे बद अंजुरी, रीती रोय किसान..
जिनगानी के समंदर, गाँव-गँवई के रीत.
जिनगी गुजरत हे 'सलिल', कुरिया-कुंदरा मीत..
महतारी भुइयाँ असल, बंदत हौं दिन-रात.
दाई! पैयाँ परत हौं. मूंडा पर धर हात..
जाँघर तोड़त सेठ बर, चिथरा झूलत भेस.
मुटियारी माथा पटक, चेलिक रथे बिदेस..
बाँग देही कुकराकस, जिनगी बन के छंद.
कुररी कस रोही 'सलिल', मावस दूबर चंद..
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साधुवाद सलिल जी. आप ने पाठकों को छत्तीसगढ़ी से परिचय कराया. मुझे इसमें और अवधी में बड़ी एकरूपता लगी.
जवाब देंहटाएंमहेश चन्द्र द्विवेदी
देश की सभी लोक भाषाएँ संस्कृत की ऋणी हैं. आपने उत्साहवर्धन किया, धन्यवाद. भोजपुरी, निमाड़ी तथा छतीसगढ़ी के बाद अवधी, राजस्थानी आदि की झलक प्रस्तुत करने का विचार है.
जवाब देंहटाएंसलिल जी,
जवाब देंहटाएंआपके दोहे वास्तव में दमदार होते हैं.
मदन मोहन 'अरविन्द'