शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

बासंती दोहा ग़ज़ल --आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’

बासंती दोहा ग़ज़ल


आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
*

स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.

किंशुक कुसुम विहंस रहे या दहके अंगार..
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.

पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
*
महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.

मधुशाला में बिन पिए' सर पर नशा सवार..
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.

पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.

देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
*
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.

ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
*
ढोलक टिमकी मंजीरा, करें ठुमक इसरार.

तकरारों को भूलकर, नाचो गाओ यार..
*
घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.

अपने मन का मेल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
*
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.

सूरत-सीरत रख 'सलिल', निरमल-विमल सँवार..

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5 टिप्‍पणियां:

  1. marwari digest said...

    bahut pyare, manuhare dohe hai.

    anumati den to main inko apani masik marwari digest me prakashit kar loon.

    Ratan Jain

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  2. आत्मीय रतन जी!

    वन्दे मातरम.

    आप मारवाड़ी डाइजेस्ट में इस दोहा ग़ज़ल को प्रकाशित कर लीजिये. पत्रिका की प्रति भेजिये.

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  3. क्या बात है !
    बसंत पर दोहे बहुत ही मीठे और आकर्षक हैं |

    अवनीश तिवारी

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  4. बसंत की बासंती मनुहार से मन प्रसन्न हो गया .....

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