बासंती दोहा ग़ज़ल
आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’
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स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार.
किंशुक कुसुम विहंस रहे या दहके अंगार..
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पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश है, लख वनश्री श्रृंगार..
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महुआ महका देखकर, बहका-चहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए' सर पर नशा सवार..
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नहीं निशाना चूकती, पञ्च शरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
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नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
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मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
ऋतु बसंत में मन करे, मिल में गले, खुमार..
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ढोलक टिमकी मंजीरा, करें ठुमक इसरार.
तकरारों को भूलकर, नाचो गाओ यार..
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घर आँगन तन धो लिया, सचमुच रूप निखार.
अपने मन का मेल भी, हँसकर 'सलिल' बुहार..
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बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सूरत-सीरत रख 'सलिल', निरमल-विमल सँवार..
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marwari digest said...
जवाब देंहटाएंbahut pyare, manuhare dohe hai.
anumati den to main inko apani masik marwari digest me prakashit kar loon.
Ratan Jain
आत्मीय रतन जी!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
आप मारवाड़ी डाइजेस्ट में इस दोहा ग़ज़ल को प्रकाशित कर लीजिये. पत्रिका की प्रति भेजिये.
क्या बात है !
जवाब देंहटाएंबसंत पर दोहे बहुत ही मीठे और आकर्षक हैं |
अवनीश तिवारी
बसंत की बासंती मनुहार से मन प्रसन्न हो गया .....
जवाब देंहटाएंsuder dohe,mitthe dohe, gungunanae dohon ke liye ,aap ka aabhar
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