नवगीत:
संजीव 'सलिल'
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...
गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...
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Udan Tashtari :
जवाब देंहटाएंउम्दा गीत..एक नई सी धारा.
गिरीश पंकज :
जवाब देंहटाएंhar baar ki tarah nav alavan. badhai.
वाह, आचार्य जी!
जवाब देंहटाएंआपने तो कमाल कर दिया!
आपका ऐसा आशीष पाकर हम सब धन्य हो गए!
बहुत खूब मज़ा आया।
जवाब देंहटाएंयह संवदेनशील जुड़ाव आदरणीय है।
आचार्य जी !
जवाब देंहटाएंआपके इन सुंदर आशीर्वचनों से वे धन्य हुए जिनके नाम इस रचना में हैं।
काश, मैंने भी अपनी रचना भेजी होती तो मेरा भी नाम यहाँ होता... :(
acchha likha hai aapne
जवाब देंहटाएंsach sameer bhai (udan tashtaree)se sahamat hoon
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