कविता : प्रति कविता
योगी “तुलसीदास”
इं० अम्बरीष श्रीवास्तव
“वास्तुशिल्प अभियंता”
हुलसीनन्दन भक्त कवि, गुरु है नरहरिदास |
आत्माराम दुबे पिता, राजापुर था वास ||
प्राणप्रिया रत्नावली, सदा चाहते पास |
धिक्कारित होकर हुए, योगी तुलसीदास ||
दो दो तुलसी विश्व में, दोनों का नहिं छोर |
पहले हरि के मन बसैं, दूजे चरनन ओर||
कालजयी साहित्य के, रचनाकार महान |
भक्ति रूप आकाश में, तुलसी सूर्य समान ||
रामचरितमानस रची, दिये विनय के ग्रन्थ|
भक्ति प्रेम सदभाव ही, तुलसी का है पन्थ||
सगुण रूप निर्गुण धरे, तुलसी का ये भाव |
कर्म योग और भक्ति ही, सबका होय स्वभाव ||
--ambarishji@gmail.com
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संजीव 'सलिल'
वास्तव में श्री-युक्त वह, जो रचता शुभ काव्य.
है अम्बर के ईश में, नव शुभता संभाव्य..
रत्न अवलि जो धारती, वह दिखलाती राह.
जो तुलसी का दास है, रखे न नश्वर चाह..
श्री हरि शालिग्राम हैं, सदा गुप्त है चित्र.
तुलसी हरि की भाग है, नाता बहुत विचित्र..
हरि ही प्रगटे राम बन, तुलसी गायें नाम.
निज हित तज रत्ना सकी, साध दैव का काम.
दास न तुलसी का रहा, जब रत्ना के मोह.
तज रत्ना स्वयं ही, चाहा दीर्घ विछोह..
आजीवन रत्ना रही, पति प्रति निष्ठावान.
तुलसिदास को दिखाए, तुलसीपति भगवान्..
रत्ना सा दूजा नहीं रत्न, सकी भू देख.
'सलिल' न महिमा गा सका, मानव का अभिलेख..
रत्नापति को नमन कर. श्री वास्तव में धन्य.
अम्बरीश सौभाग्य यह, दुर्लभ दिव्य अनन्य.
'सलिल' विनत रत्ना-प्रति, रत्ना-पति के साथ.
दोनों का कर स्मरण, झुके-उठे भी माथ..
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आदरणीय अम्बरीश जी
जवाब देंहटाएंवाह! वाह !! क्या बात है !!!
और उस पर से आचार्य जी की दोहे में टिपण्णी !!
सोने पर सुहागा जैसा
-कृष्ण कन्हैया