शनिवार, 12 दिसंबर 2009

नवगीत: डर लगता है --संजीव 'सलिल'

नवगीत:


संजीव 'सलिल'

*
डर लगता है

आँख खोलते...

*
कालिख हावी है

उजास पर.

जयी न कोशिश

क्षुधा-प्यास पर.

रुदन हँस रहा

त्रस्त हास पर.

आम प्रताड़ित

मस्त खास पर.

डर लगता है

बोल बोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*
लूट फूल को

शूल रहा है.

गरल अमिय को

भूल रहा है.

राग- द्वेष का

मूल रहा है.

सर्प दर्प का

झूल रहा है.

डर लगता है

पोल खोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*
आसमान में

तूफाँ छाया.

कर्कश स्वर में

उल्लू गाया.

मन ने तन को

है भरमाया.

काया का

गायब है साया.

डर लगता है

पंख तोलते.

डर लगता है

आँख खोलते...

*

5 टिप्‍पणियां:

  1. नमन आपको और आपकी कलम को.

    नि:शब्द हूँ. शुभकामनायें.

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  2. कलियुगी माया से भ्रमित संसार से में डर ही लगेगा आँख खोलते , पोल खोलते ...!!

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  3. Aapkee har rachna anoothee hai..mai comment karne ke sahee me qaabil nahee..sahee kaha Nirmala jee ne...nishabd hun!

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  4. मेरी रचना को सराहनीय प्रयास कहने के लिए बहुत धन्यबाद , मेरे लिए यह बहुत बड़ा प्रोत्साहन है। आपकी रचनाये सुन्दर के साथ साथ अति अर्थपूर्ण भी

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  5. Dear Salil Ji

    I enjoy reading your poems on e-kavita.
    I would like to include your poem "Dar Lagta Hai" on my website Geeta-Kavita (www.geeta-kavita.com).
    Kindly permit me to do so.
    Kind regards

    Rajiv K. Saxena

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