नवगीत:
संजीव 'सलिल'
सूना-सूना
घर का द्वार,
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
भौजाई के
बोल नहीं,
बजते ढोलक-
ढोल नहीं.
नहीं अल्पना-
रांगोली.
खाली रिश्तों
की झोली.
पूछ रहे:
हाऊ यू आर?
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
माटी का
दीपक गुमसुम.
चौक न डाल
रहे हम-तुम.
सज्जा हेतु
विदेशी माल.
कुटिया है
बेबस-बेहाल.
श्रमजीवी
रोता बेज़ार.
मना रहे
कैसा त्यौहार?...
*
हल्लो!, हाय!!
मोबाइल ने,
दिया न हाथ-
गले मिलने.
नातों को
जीता छल ने .
लगी चाँदनी
चुप ढलने.
'सलिल' न प्रवाहित
नेह-बयार.मना रहे
कैसा त्यौहार?...
****************
सुन्दर लगा आपका यह गीत!! बधाई.
जवाब देंहटाएंनहीं अल्पना रंगोली
जवाब देंहटाएंखाली रिश्तों की झोली
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना.
आभार
बहुत भावुक का र्गई आपकी यह कृति और आइना भी दिखा गयी. बधाई स्वीकारें इस सुन्दर प्रस्तुति पर.
जवाब देंहटाएंआपका सृजनात्मक कौशल हर पंक्ति में झाँकता दिखाई देता है.
जवाब देंहटाएंkanhaiyakrishna@hotmail.com
जवाब देंहटाएंAdareey Achary Jee,
Bahut khoob kataksh hai adhunikta par.
Badhayee ho.
-Krishna Kanhaiya
Krishna Kanhaiya