नवगीत:
आचार्य संजीव 'सलिल'
बैठ मुंडेरे
कागा बोले
काँव, काँव का काँव.
लोकतंत्र की चौसर
शकुनी चलता
अपना दाँव.....
*
जनता
द्रुपद-सुता बेचारी.
कौरव-पांडव
खींचें साड़ी.
बिलख रही
कुररी की नाईं
कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल
हुई है
सूनी अमराई.
पनघट सिसके
कहीं न दिखतीं
ननदी-भौजाई.
राजनीति ने
रिश्ते निगले
सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो
भूख नहीं है.
नहीं भूख को दाना.
नादाँ स्वामी,
सेवक दाना
सबल करे मनमाना.
सूरज
अन्धकार का कैदी
आसमान पर छाँव...
*
Read more...
vaakai SOORAJ andhkar ke ADHEEN ho gayaa hai, achchha GEET.
जवाब देंहटाएंaapke dwara lagaatar SAHYOG karne ka AABHAR.
November 11, 2009 10:40 PM
सलिल जी!
जवाब देंहटाएंबहुत ही श्रेष्ठ नवगीत है. यह कुररी क्या होतीहै? आपने लिखा है कि बिलख रही कुररी की नाईं...
अजित जी !
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
कुरर अर्थात क्रौंच पक्षी, कुररी अर्थात मादा कुरर जिसकी विरहपूर्ण चीत्कार को सुनकर महर्षि वाल्मीकि के मुख से प्रथम कविता निःसृत हुई और वे आदिकवि कहलाये.
आचार्य जी, उम्दा!!
जवाब देंहटाएंमैं बस यही कहूँगी बहुत ही अच्छी रचना है !!!
जवाब देंहटाएं