गुरुवार, 12 नवंबर 2009

नवगीत: आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आचार्य संजीव 'सलिल'

बैठ मुंडेरे

कागा बोले

काँव, काँव का काँव.

लोकतंत्र की चौसर

शकुनी चलता

अपना दाँव.....
*
जनता

द्रुपद-सुता बेचारी.

कौरव-पांडव

खींचें साड़ी.

बिलख रही

कुररी की नाईं

कहीं न मिलता ठाँव...
*
उजड़ गए चौपाल

हुई है

सूनी अमराई.

पनघट सिसके

कहीं न दिखतीं

ननदी-भौजाई.

राजनीति ने

रिश्ते निगले

सूने गैला-गाँव...
*
दाना है तो

भूख नहीं है.

नहीं भूख को दाना.

नादाँ स्वामी,

सेवक दाना

सबल करे मनमाना.

सूरज

अन्धकार का कैदी

आसमान पर छाँव...
*
Read more...

5 टिप्‍पणियां:

  1. डॉo कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ...गुरुवार, नवंबर 12, 2009 12:37:00 am

    vaakai SOORAJ andhkar ke ADHEEN ho gayaa hai, achchha GEET.

    aapke dwara lagaatar SAHYOG karne ka AABHAR.

    November 11, 2009 10:40 PM

    जवाब देंहटाएं
  2. डॉ. श्रीमती अजित गुप्तागुरुवार, नवंबर 12, 2009 12:44:00 am

    सलिल जी!

    बहुत ही श्रेष्ठ नवगीत है. यह कुररी क्या होतीहै? आपने लिखा है कि बिलख रही कुररी की नाईं...

    जवाब देंहटाएं
  3. अजित जी !

    वन्दे मातरम.

    कुरर अर्थात क्रौंच पक्षी, कुररी अर्थात मादा कुरर जिसकी विरहपूर्ण चीत्कार को सुनकर महर्षि वाल्मीकि के मुख से प्रथम कविता निःसृत हुई और वे आदिकवि कहलाये.

    जवाब देंहटाएं
  4. मैं बस यही कहूँगी बहुत ही अच्छी रचना है !!!

    जवाब देंहटाएं