शनिवार, 24 अक्टूबर 2009

दोहों की दुनिया संजीव 'सलिल'

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

दोहों की दुनिया

संजीव 'सलिल'

देह नेह का गेह हो, तब हो आत्मानंद.
स्व अर्पित कर सर्व-हित, पा ले परमानंद..

मन से मन जोड़ा नहीं, तन से तन को जोड़.
बना लिया रिश्ता 'सलिल', पल में बैठे तोड़..

अनुबंधों को कह रहा, नाहक जग सम्बन्ध.
नेह-प्रेम की यदि नहीं, इनमें व्यापी गंध..

निज-हित हेतु दिखा रहे, जो जन झूठा प्यार.
हित न साधा तो कर रहे, वे पल में तकरार..

अपनापन सपना हुआ, नपना मतलब-स्वार्थ.
जपना माला प्यार की, जप ना- कर परमार्थ..

भला-बुरा कब कहाँ क्या, कौन सका पहचान?
जब जैसा जो घट रहा, वह हरि-इच्छा जान.

बहता पानी निर्मला, ठहरा तो हो गंद.
चेतन चेत न क्यों रहा?, 'सलिल' हुआ मति-मंद..

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3 टिप्‍पणियां:

  1. mamaji, doho ki duniya ke madhyam se aapne duniya ke kai rango se parichay karaya,atisunder rachna hai.hardik shubhkamnaye...bhanja rajeev,katni.

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  2. बहुत सुन्दर सत्य ढाला है आपने इन पंक्तिओं में.

    भला-बुरा कब कहाँ क्या, कौन सका पहचान?
    जब जैसा जो घट रहा, वह हरि-इच्छा जान.

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