बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

नवगीत: आओ! मिलकर बाँटें-खायें... -आचार्य संजीव 'सलिल'

नवगीत

आचार्य संजीव 'सलिल'

आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
करो-मरो का
चला गया युग.
समय आज
सहकार का.
महजनी के
बीत गये दिन.
आज राज
बटमार का.
इज्जत से
जीना है यदि तो,
सज्जन घर-घुस
शीश बचायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*
आपा-धापी,
गुंडागर्दी.
हुई सभ्यता
अभिनव नंगी.
यही गनीमत
पहने चिथड़े.
ओढे है
आदर्श फिरंगी.
निज माटी में
नहीं जमीन जड़,
आसमान में
पतंग उडाएं.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
लेना-देना
सदाचार है.
मोल-भाव
जीवनाधार है.
क्रय-विक्रय है
विश्व-संस्कृति.
लूट-लुटाये
जो-उदार है.
निज हित हित
तज नियम कायदे.
स्वार्थ-पताका
मिल फहरायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*****************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पॉट.कॉम

5 टिप्‍पणियां:

  1. मुकेश कुमार तिवारीशनिवार, अक्टूबर 17, 2009 9:18:00 am

    मुकेश कुमार तिवारी

    आचार्य जी!

    इस दौर का कच्चा चिटठा लगा यह नवगीत.

    लेना-देना सदाचार है
    मोल-भाव जीवनाधार है
    क्रय-विक्र है विश्व-संस्कृति
    लूट-लुटाये जो उदार है.
    निज हित हित
    तज नियम-कायदे
    स्वार्थ पताका
    मिल फहरायें.
    आओ! मिलकर बाँटें-खायें.

    बहुत ही अच्छा लगा यह बंद.

    सादर

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  2. सुन्दर विचारों से युक्त रचना के लिए शुक्रिया.

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  3. आओ मिलकर बाँटें-खायें...

    सजी दीवाली
    दीपक बोला
    तेल पी गयी
    बाती सारी.

    इस मँहगाई में इतना मिल पाये
    आओ! मिलकर बाँटें-खायें...

    दीपावली की शभकामनाएँ. हम तो परस्पर प्रेम बाँटकर ही आनंद लेंगे.

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  4. वाह! वाह!!

    सटीक समयानुकूल रचना.

    आपको बधाई कविता की भी और दीवाली की भी.

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  5. अखिलेश के हाईटेक चुनावी रथ से चाचा शिवपाल गायब
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