एक कविता
भिक्षुक
राजीव कुमार वर्मा, पेंड्रारोड
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर,
दुआ माँगता हाथ उठाकर.
राहगीर से करता विनती,
अनगिन कभी न करता गिनती.
कोई भर जाता है झोली
कोई जाता नजर चुराकर,
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर...
मैली धोती तन पर पहना,
फटी बिमाई पग का गहना.
मुख पर दरिद्रता की छाया,
झुकी भर से उसकी काया.
कभी भूख को गले लगाता,
भोग कभी पाता है छककर.
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर...
मिला पीठ से पेट एक है,
करता प्रभु से दुआ नेक है.
फिरे नगर में मारा-मारा,
भिक्षाटन करता बेचारा.
चलता कभी, कभी रुक जाता,
कभी बैठ जाता है थककर.
बैठा भिक्षुक गंगा तट पर...
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सरस, सरल, मधुर रचना हेतु साधुवाद. शब्द चित्र मर्मस्पर्शी है.
जवाब देंहटाएंachhi rachna hai . likhte rahiye
जवाब देंहटाएंGood Job mate , Keep it up
जवाब देंहटाएंshayad abhi naye hain aap is blog ki duniya me . aapka blog address ho to mujhe forword karen , rachna achhi hai .
जवाब देंहटाएंDhanywaad - ki aapne Divya Narmada Parivaar me apni rachna prakashan k liye pradaan ki.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंbadhiya
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