सोमवार, 10 अगस्त 2009

क्षणिकाएं : पूर्णिमा वर्मन

क्षणिकाएँ

पूर्णिमा वर्मन



खिलखिलाते लुढ़कते दिन
बाड़ से- आँगन तलक
हँसकर लपकते रूप
झरती धूप



फुरफुराती
दूब पर चुगती चिरैया
चहचहाती झुंड में
लुकती प्रकटती
छोड़ती जाती
सरस आह्लाद के पदचिह्न



फिर मुँडेरों पर झुकी
गुलमोहर की बाँह,
फिर हँसी है छाँह
फिर हुई गुस्सा सभी पर धूप
क्या परवाह?



ताड़ के डुलते चँवर
वैशाख के दरबार
सड़कें हो रही सूनी
कि जैसे
आ गया हो कोई तानाशाह



रेत की आँधी
समंदर का किनारा
तप रहा सूरज
औ'
नन्हा फूल
कुम्हलाता बेचारा



एक आँगन धूप का
एक तितली रंग
एक भँवरा गूँजता दिनभर
एक खिड़की-
दूर जाती सी सड़क के साथ
जैसे गुनगुनाती आस

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