कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी|
गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे.
आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- 'बुरा ही देखो'|
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'|
'बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी|
'अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो? संपादक जी ने डपटते हुए पूछा|
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है| कोई कमी रह गई हो तो बताएं|'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
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बन्दर भी बदले यहाँ देख जगत का हाल।
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में दे गए कुछ संदेश कमाल।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
कम शब्द....गूढ बात...
जवाब देंहटाएंबहुत ही श्रेष्ठ लघुकथा है। लघुकथा का अर्थ ही है कि अन्त में कोई दर्शन की बात हो। हमारी शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंsanjiv ji ,
जवाब देंहटाएंbahut kam shbdo me aapne bahut saarthak katha kah daali hai ....
aapko badhai ..
vijay
बहुत प्रभावी लघुकथा। यह सच भी है।
जवाब देंहटाएंbahut hi sunder kahani hai
जवाब देंहटाएंgagar me sagar si
saader
व्यंग्य है वर्तमान पर। पढ कर ही पता चल जाता है कि आचार्य की लघुकथा है।
जवाब देंहटाएंसोचने को बाध्य करती लघुकथा।
जवाब देंहटाएंEK SAARGARBHIT LAGHUKATHA.ACHARYA
जवाब देंहटाएंJEE,BADHAEE AAPKO.
EK SAARGARBHIT LAGHUKATHA.ACHAARYA
जवाब देंहटाएंaaj ke halato par steek laghu katha.
जवाब देंहटाएंabhar.