मंगलवार, 2 जून 2009

लघुकथा -मुखड़ा देख ले आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी|

गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर इधर-उधर ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे.

आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- 'बुरा ही देखो'|

हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुंह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'|

'बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाए तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी|

'अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाए हो? संपादक जी ने डपटते हुए पूछा|

'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है| कोई कमी रह गई हो तो बताएं|'

ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखडा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'

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11 टिप्‍पणियां:

  1. बन्दर भी बदले यहाँ देख जगत का हाल।
    कम शब्दों में दे गए कुछ संदेश कमाल।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. कम शब्द....गूढ बात...

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  3. बहुत ही श्रेष्‍ठ लघुकथा है। लघुकथा का अर्थ ही है कि अन्‍त में कोई दर्शन की बात हो। हमारी शुभकामनाएं।

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  4. sanjiv ji ,

    bahut kam shbdo me aapne bahut saarthak katha kah daali hai ....
    aapko badhai ..

    vijay

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  5. बहुत प्रभावी लघुकथा। यह सच भी है।

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  6. व्यंग्य है वर्तमान पर। पढ कर ही पता चल जाता है कि आचार्य की लघुकथा है।

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  7. सोचने को बाध्य करती लघुकथा।

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  8. EK SAARGARBHIT LAGHUKATHA.ACHARYA
    JEE,BADHAEE AAPKO.

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