गुरुवार, 11 जून 2009

नव-गीत: आचार्य संजीव 'सलिल'

भवनों के जंगल



घनेरे हजारों...



*



कोई घर न मिलता



जहाँ चैन सुख हो।



कोई दर न दिखता



रहित दर्द-दुःख हो।



मन्दिर में हैरां



मनाता है हरि ही



हारा-थका हूँ



हटो रे कतारों...



*



माटी को कुचलो



पर्वत भी खोदो।



जंगल भी काटो-



खुदी नाश बो दो।



मरघट बना जग



तू धूनी रमाना-



न फूलो अहम् से



ओ पंचर गुब्बारों...



*



जो थोथा चना है,



वो बजता घना है।



धोता है, मन



तन तो माटी सना है।



सांसों से आसों का



है क़र्ज़ भारी-



लगा भी दो कन्धा



न हिचको कहारों...




*********************

4 टिप्‍पणियां: