शनिवार, 16 मई 2009

काव्य किरण : गीत : -कृपाशंकर शर्मा 'अचूक', जयपुर

अनजानी अनसुनी

कहानी सुनते आये हैं।

अरमानों के धागों से

कुछ बुनते आये हैं...



कान लगाकर सुना नहीं

संदेश फकीरों का।

जीवन व्यर्थ गँवाया कर

विश्वास लकीरों का।

सब अतीत की बातों

को ही चुनते आये हैं...



आँगन-आँगन अमलतास ने

डाला डेरा है।

सूरज की किरणें तो आतीं

किन्तु अँधेरा है।

धुनकी रीति-रिवाजों की

नित धुनते आये हैं...


याद किसी की जैसे

कोई शूल चुभोती हो।

खड़ी ज़िंदगी द्वारे पर

बतियाती होती हो।

अपने पाँवों की 'अचूक'

गति गुनते आये हैं...

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