बैठते-उठते मशीनों के संग,
मशीन बन गया हूँ मैं,
नैतिक मूल्यों से दूर,
निर्जीव, सजीव रह गया हूँ मैं।
मस्तिष्क के पुर्जों का जंग,
विचारों को करता प्रभावहीन,
और अंगों में पड़ता जड़त्व,
स्फूर्ति को बनाता है।
दिनचर्या का हर काम,
बन चुका पर-संचालित,
और मेरे उद्योग का परिणाम,
लगता है पूर्व - नियोजित।
नूतनता का अभाव,
व्यक्तित्व को निष्क्रिय बनाए,
कार्य-प्रणाली के प्रदूषण,
जर्जरता को सक्रिय कर जाए।
जब स्पर्धा के पेंचों का कसाव,
स्वार्थी बना जाता है,
तब मैत्री के क्षणों का तेल,
द्वंद - घर्षण दूर भगाता है।
अन्य नए मशीनों में,
अनदेखा हो गया हूँ,
मशीन से बिगड़ अब,
कबाड़ हो रहा हूँ।
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सामयिक प्रतीकों को समेटती हुई अच्छी रचना...
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