शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

गीत

ओढ़ कुहासे की चादर

ओढ़ कुहासे की चादर
धरती लगाती दादी।
ऊंघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...

सूर्य अंगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया।
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया।
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...

कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर।
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर।
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...

नैतिकता की गाय कांपती,
संयम छत टपके।
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके।
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...

भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला।
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फंसा- फिसला।
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...

बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है।
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है।
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...

हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा।
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा।
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...

*****

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें