सोमवार, 1 दिसंबर 2025

दिसंबर १, सॉनेट, वीप्सा अलंकार, दोहे, नवगीत, मुक्तक, कुण्डलिया, वैदिक धर्म ध्वज

सलिल सृजन दिसंबर १
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वैदिक सनातन धर्म ध्वज वेदों में ग्रन्थों में ध्वज का विस्तृत विवरण कई स्थानों में दिया गया है। आईये जानते हैं हमारे ध्वज की महत्ता :, अस्माकमिन्द्र: समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु। अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु।। ऋग्वेद, 10-103-11, अथर्ववेद, 19-13-11 अर्थात्, हमारे ध्वज फहराते रहें, हमारे बाण विजय प्राप्त करें, हमारे वीर वरिष्ठ हों, देववीर युद्ध में हमारी विजय करवा दें। इस मंत्र में युद्ध के समय ध्वज लहराता रहना चाहिये। उद्धर्षन्तां मघवन्वाजिनान्युद्वीराणां जयतामेतु घोष:। पृथग्घोषा उलुलय: केतुमन्त उदीरताम्।। अथर्ववेद, 3.19.6 अर्थात्, हमारी सब सेनाएं उत्साहित हों, हमारे विजयी वीरों की घोषणाएं (आकाश में) गरजती रहें, अपने-अपने ध्वज लेकर आनेवाले विविध पथों की घोषणाओं का शब्द यहां निनादित होता रहे। अमी ये युधमायन्ति केतून्कृत्वानीकश:। वही, 6.103.3 अर्थात्, ये वीर अपनी सेना की टुकडिय़ों के साथ अपने ध्वज लेकर युद्ध में उपस्थित होते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि अति प्राचीन युग में भारतीय-ध्वज का स्वरूप कैसा था ? ऋग्वेद में कहा गया है – अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा।। अथर्ववेद, 6.126.3 अर्थात्, उगनेवाली सूर्य की रश्मियां, तेजस्वी अग्नि की ज्वालाएं (फड़कने वाले) ध्वज के समान दिखाई दे रही हैं। इस मंत्र से यह निश्चित होता है कि वैदिक आर्यों के ध्वज का आकार अग्नि-ज्वाला के समान था। वेदों में कई स्थानों पर अग्नि-ज्वाला के आकारवाले ध्वज का वर्ण भगवा स्पष्ट किया गया है "एता देवसेना: सूर्यकेतवः सचेतसः। अमित्रान् नो जयतु स्वाहा ।।" (अथर्ववेद ५.२१.१२), "अरुणैः केतुभिः सह " (अथर्ववेद ११.१२.२) उपरोक्त मन्त्रों में अरुण, अरुष, रुशत्, हरित, हरी, अग्नि, रजसो भानु, रजस् और सूर्य – ये नौ शब्द ध्वज का वर्ण निश्चित करते हैं। हरित और हरी – इन शब्दों से हल्दी के समान पीला रंग ज्ञात होता है। सूर्य शब्द सूर्य का रंग बता रहा है। यह रंग भी हल्दी के समान ही है। अरुण रंग यह उषाकाल के सदृश कुल लाल रंग के आकाश का रंग है। अरुष तथा रुशत् – ये शब्द भी भगवे रंग के ही निदर्शक हैं। रजस तथा रजसो भानु – ये शब्द सूर्य किरणों से चित्रित धूल का रंग बता रहे हैं। इन मन्त्रों में ध्वज को अग्नि ज्वाला, विद्युत, उगता हुआ सूर्य तथा चमकनेवाला खंग – ये उपमाएं दी हुई हैं। इसमें निर्णायक उपमाएं रजसो भानुं तथा अरुण: – ये हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन पदों में निदर्शित रंग भगवा ही है। इन नौ पदों से यद्यपि भगवे रंग की न्यूनाधिक छटाएं बताई गई हैं, तथापि पीला तथा लाल भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्रम् में युद्ध में देवताओं द्वारा दानवों के पराजित होने पर इन्द्र के विजयोत्सव में मनाये गये ध्वज-महोत्सव का उल्लेख मिलता है। सूर्यमण्डलान्तर्गत सूर्यस्वरूप सर्वरूप अप्रतिरूप शिव अपनी ध्वजा और पताका पर सूर्यका चिह्न धारण करते हैं। *नमोऽस्त्वप्रतिरूपाय विरूपाय शिवाय च। सूर्याय सूर्यमालाय सूर्यध्वजपताकिने।।* (महाभारत - शान्तिपर्व २८४.८१) त्रिकोण रक्तवर्ण के वस्त्रपर अङ्कित श्वेत वर्ण के सूर्य को वैदिक ध्वज माना गया है उपरोक्त मंत्रों से स्प्ष्ट है कि वैदिक सनातन ध्वज की संरचना में मुख्य उसका रंग है जो कि यज्ञ की पावन अग्नि , उगते हुए सूर्य और उत्साह एवं वीरता के प्रतीक भगवा है। इसके मध्य में श्वेत वर्णीय सूर्य है और सूर्य के मध्य सबका कल्याण हो ऐसी स्वस्ति कामना करता स्वस्तिक चिन्ह है।
१.१२.२०२५ 
००० 
सॉनेट
समय छिछोरा
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छेड़ रहा है उम्मीदों को समय छिछोरा,
आशा के पग रुक गए, भय से एसिड देख,
ब्लैक मेल अरमान हो, कौन करेगा लेख?
भूल रहा है निज भाषा को मनुज अधूरा।
कौन पढ़े क्या लिखा?, कोशिशी कागज कोरा,
कहें हथेली पर नहीं, खिंची सफलता रेख,
नियम हथौड़ा हो गए, रीति बन गई मेख,
कुर्सी बैठ कागा चमचा कहता गोरा।
दीप-ज्योति में कराकर, शक तूफान तलाक,
ठठा रहा है बेधड़क, कहाँ करें फ़रियाद?
वादों को जुमला बता, चोर बन गया शाह।
बिसर गया 'बतखाव' मन, रोज कर रहा टाक,
नाक कटाते 'लिव इनी', खुद को कार बर्बाद,
खुद जाते पर पूछते 'कहाँ जा रही राह?'
१.१२.२०२३
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मुक्तक
रचनाधर्मी साथ हमारे, हो प्रभात खुशहाल
दोपहरी उपलब्धि दे, संध्या सज्जित भाल
निशा शांति विश्राम ले, बोले 'मीचो नैन-
सुखद स्वप्न अनगिन दिखा सबको दीनदयाल'
१.१२.२०२१
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कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
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बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
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दोहा सलिला
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दोहा सलिला निर्मला, सारस्वत सौगात।
नेह नर्मदा सनातन, अवगाहें नित भ्रात
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अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द-शब्द सौगात।
चरण-चरण में सार है, पद-पद है अवदात।।
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दोहा दिव्य दिनेश दे, तम हर नवल प्रभात।
भाषा-भूषा सुरुचिमय, ज्यों पंकज जलजात।।
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भाव, कहन, रस, बिंब, लय, अलंकार सज गात।
दोहा वनिता कथ्य है, अजर- अम्र अहिवात।।
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दोहा कम में अधिक कह, दे संदेशा तात।
गागर में सागर भरे, व्यर्थ न करता बात।।
१.१२.२०१८
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दोहा
कथ्य भाव लय छंद रस, पंच तत्व आधार.
मुरली-धुन सा कवित रच, पा पाठक से प्यार
मुक्तक
उषा-स्वागत कर रही है चहक गौरैया
सूर्य-वंदन पवन करता नाच ता-थैया
बैठका मुंडेर कागा दे रहा संदेश-
तानकर रजाई मनुज सो रहा भैया...
मत जगाओ, जागकर अन्याय करेगा
आदमी से आदमी भी जाग डरेगा
बाँटकर जुमले ठगेगा आदमी खुद को
छीन-झपट, आग लगा आप मरेगा
...
नमन तुमको कर रहा सोया हुआ ही मैं
राह दिखाता रहा, खोया हुआ ही मैं
आँख बंद की तो हुआ सच से सामना
जाना कि नहीं दूध का धोया हुआ हूं मैं
१.१२.२०१७
...
अलंकार सलिला ३७
वीप्सा अलंकार
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कविता है सार्थक वही, जिसका भाव स्वभाव।
वीप्सा घृणा-विरक्ति है, जिससे कठिन निभाव।।
अलंकार वीप्सा वहाँ, जहाँ घृणा-वैराग।
घृणा हरे सुख-चैन भी, भर जीवन में आग।।
जहाँ शब्द की पुनरुक्ति द्वारा घृणा या विरक्ति के भाव की अभिव्यक्ति की जाती है वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
२. राम राम यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
३. चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन।
नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन।।
४ उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया,
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?'
५. मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला...
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे,
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे।
६. नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सँवरिया!
पिया-पिया रटते मैं तो हो गयी रे बँवरिया!!
७. मारो-मारो मार भगाओ आतंकी यमदूतों को।
घाट मौत के तुरत उतारो दया न कर अरिपूतों को।।
वीप्सा में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता दृष्टव्य है.
१.१२.२०१५
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नवगीत
पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
.
आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी
१.१२.२०१४

 

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