बुधवार, 2 जुलाई 2025

चंद्र विजय विमोचन

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
कार्यालय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ 
विश्व कीर्तिमान रचता काव्य संकलन ''चंद्र विजय अभियान'' विमोचित
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                    जबलपुर, ३१ मई। "चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर आरोहण कर भारत को विश्व में प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित करने वाले अभियंताओ, वैज्ञानिकों और तकनीकविदों के सम्मान में 'चंद्र विजय अभियान' नामक संकलन की संकल्प हिंदी साहित्य में अपनी तरह का प्रथम और महत्वपूर्ण प्रयोग है। ऐसा समय साक्षी साहित्य भावी पीढ़ियों का पथ प्रदर्शन करता है। इस हेतु विश्व वाणी हिंदी संस्थान था संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के साथ सभी २१३ सहभागी साधुवाद के पात्र हैं। अभियांत्रिकी शिक्षा में हिंदी का प्रयोग दिनों-दिन बढ़ रहा है किंतु अभी भी कठनाइयाँ बहुत हैं। कई शाखाओं में हिंदी में पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं।'' डॉ. राजीव चाँडक  प्राचार्य शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय जबलपुर ने उक्त विचार सारस्वत अतिथि की आसंदी से विश्व कीर्तिमान स्थापित कर रहे काव्य संकलन 'चंद्र विजय अभियान' का लोकार्पण करते हुए व्यक्त किए। इसके पूर्व जानकी रमण महाविद्यालय में संस्था की कार्यकारिणी बैठक में ऑपरेशन सिंदूर पर एक स्मारिका द्वारा सेनाओं का अभिनंदन करने तथा पर्यावरण चेतना जाग्रत करने हेतु फुलबगिया काव्य संकलन द्वारा पर्यावरण चेतन जाग्रत करने की घोषणा डॉ. मुकुल तिवारी ने की। आरंभ में सरस्वती वंदना तथा बांग्ला कविता का सुमधुर पाठ श्रीमती क्षिप्रा सेन ने किया। हैदराबाद से पधारी श्रीमती सुनीता परसाई ने भुआणी में काव्य पाठ किया। नव पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हुए सुश्री ईशिता मिश्रा ने भी काव्य पाठ किया। 

                    कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ख्यात दंत शल्यज्ञ डॉ. रोहित मिश्र ने हिंदी में विज्ञान और तकनीक संबंधी लेखन को युग की जरूरत बताते हुए दंत चिकित्सा के अध्ययन हिंदी बनाए जाने से सहमति व्यक्त की तथा संकल्प किया कि दंत विज्ञान की एक पुस्तक हिंदी में यात्री शीघ्र लिखेंगे। संकलन में सम्मिलित जबलपुर के ४० रचनाकारों को ससम्मान कृति भेंट करते हुए प्रसिद्ध छंद शास्त्री-समीक्षक इं. संजीव वर्मा 'सलिल' चेयरमैन इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर ने केंद्र तथा राज्य शासन से सभी तकनीकी तथा विज्ञान संबंधी पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से पढ़ाए जाने को आदिवासी, श्रमिक, दलित तथा निम्न वर्ग के बच्चों की उन्नति के लिए आवश्यक बताया। अपनी मारिशस यात्रा के अनुभव सुनाते हुए वक्ता ने हिंदी के तकनीकी पाठ्यक्रम उन देशों में भी आरंभ किए जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की जहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय हैं। सद्य लोकार्पित काव्य संग्रह में ५ देशों के २१३ रचनाकारों द्वारा ५२ भाषा-बोलिओं में २७० रचनाएँ एक वैज्ञानिक परियोजना पर लिखे जाने का ऐतिहासिक सारस्वत अनुष्ठान ने संस्कारधानी की गौरव वृद्धि की है।  

                    ''हिंदी में विज्ञान परक लेखन - दशा और दिशा' विषय पर बोलते हुए सारगर्भित संगोष्ठी में श्रीमती  छाया शुक्ला ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अद्यतन वैज्ञानिक प्रगति के अनुरूप ही नहीं भावी विकास को दृष्टि में रखते हुए परिवर्तन किए जाने को आवश्यक बताया। युवा कवि अजय मिश्र ने हिंदी में विज्ञान परक लेखन को अपर्याप्त मानते हुए  इस दिशा में प्रचुर प्रयास किए जाने पर बल दिया। जानकी रमन महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी ने विज्ञान तथा अभियांत्रिकी शिक्षा संबंधी पाठ्य क्रमों में नव वैज्ञानिक प्रगति के अनुरूप निरंतर परिवर्तन किए जाने के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाए जाने की जरूरत प्रतिपादित की। आभार प्रदर्शन गजलकार मीना भट्ट ने किया। आयोजन को सफल बनाने में डॉ. अस्मिता शैली, डॉ. अल्पना श्रीवास्तव, इं. सुरेन्द्र सिंह पवार, एड. सलप नाथ यादव, काली दास ताम्रकार, मदन श्रीवास्तव,  डॉ. सुरेन्द्र साहू 'निर्विरोध', आदि ने सराहनीय योगदान किया। 
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
लोकार्पण विश्व कीर्तिमानधारी संकलन "चंद्र विजय अभियान"   
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दिनाँक - ३१ मई २०२५     समय - अपराह्न २.३० बजे से
स्थान - जानकी रमण महाविद्यालय, बलदेव बाग जबलपुर 
अध्यक्ष - आचार्य संजीव वर्मा ''सलिल''
मुख्य अतिथि - डॉ. रोहित मिश्र, दंत शल्यज्ञ 
विशेष अतिथि - 
संचालन - डॉ. मुकुल तिवारी, सचिव अभियान 

सभी साहित्यकारों की उपस्थिति समय पूर्व प्रार्थनीय है। 

भवदीय 
बसंत शर्मा, अध्यक्ष                                          मीना भट्ट, उपाध्यक्ष 
डॉ.मुकुल तिवारी सचिव,                           छाया सक्सेना, मुख्यालय सचिव 
डॉ. अरुणा पांडे, कोषाध्यक्ष                         अस्मिता शैली, कला सचिव 
प्रीति श्रीवास्तव, संगीत सचिव             अशोक श्रीवास्तव ''सिफर'' प्रचार सचिव 
अभियान परिवार    
 




विश्व कीर्तिमान रचता काव्य संकलन ''चंद्र विजय अभियान'' मारिशस में विमोचित

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मारिशस। 'भारत से पधारे साहित्यकारों मित्रों ने हम दोनों देशों के मध्य सांस्कृतिक सेतु को सुदृढ़ किया है। ''चंद्र विजय अभियान'' काव्य संकलन ने हिंदी की वैज्ञानिक विषयों पर अभिव्यक्ति और सामर्थ्य का परिचय दिया है। ५ देशों के २१३ रचनाकारों द्वारा ५२ भाषा-बोलियों में भारत के अद्भुत चंद्र अभियान पर कविता कर विश्व कीर्तिमान रचा जाना गौरव का विषय है।'' मारीशस को भारत का लघु रूप निरूपित करते हुए उक्त विचार मारीशस के स्वास्थ्य-आरोग्य मंत्री श्री अनिल कुमार बाचू ने सनातन धर्म टेंपल फेडरेशन में इं. संजीव वर्मा 'सलिल' के सम्पादन में प्रकाशित काव्य संकलन ''चंद्र विजय अभियान'' का विमोचन करते हुए व्यक्त किए।

इसके पूर्व डॉ. प्रदीप कुमार सिंह, सचिव साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था मुंबई ने संपादक सलिल जी का संक्षिप्त परिचय देते हुए संस्था की गतिविधियों से मुख्य अतिथि को परिचित कराया। डॉ. सिंह ने राम कथा विश्व कोश के ६० खंडों की वृहद योजना का विवरण प्रस्तुत करते हुए भारत और मारीशस को जोड़ने में राम कथा की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया।




संकलन की विशेषताओं और इसकी सामग्री संचय में आई पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह देश भरत

बुंदेली रामकथा

बुंदेली रामकथा का वैशिष्टय
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बुंदेलखंड - इतिहास के झरोखे से 

बुन्देलखंड एक एतिहासिक भूभाग है। बुंदेलखंड की सीमाएँ उत्तर में यमुना और गंगा के मैदान, पूर्व में विंध्य की पहाड़ियाँ और पन्ना-अजयगढ़ श्रेणियाँ, पश्चिम में सिंध और चंबल नदियाँ, तथा मालवा और उदयपुर-ग्वालियर क्षेत्र, दक्षिण में नर्मदा तथा केन और बेतवा की सहायक नदियाँ हैं। इसका वर्णन निम्न पंक्ति में वर्णित है- "इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस"।

भूगोलवेत्ता एस.एम. अली ने पुराणों के आधार पर विंध्यक्षेत्र के तीन जनपदों-विदिशा, दशार्ण एवं करुष का परिचय दिया है । उन्होंने विदिशा, की ऊपरी बेतवा के बेसिन से, दशार्ण की धसान और उसकी प्रमुख धाराओं की गहरी घाटियों द्वारा चीरा हुआ सागर प्लेटो तक फैले प्रदेश से तथा करुष की सोन-केन नदियों के बीच के समतलीय मैदान से तथा त्रिपुरी जनपद जबलपुर के पश्चिम में १० मील के लगभग ऊपरी नर्मदा की घाटी तथा जबलपुर, मंडला और नरसिंहपुर जिलों के कुछ भागों से पहचान की है । इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार ने ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टियों को संतुलित करते हुए बुंदेलखंड को कुछ रेखाओं में समेटने का प्रयत्न किया है- " (विंध्यमेखला का) तीसरा प्रदेश बुंदेलखंड है जिसमें बेतवा (वेत्रवती), धसान (दशार्णा) और केन (शुक्तिमती) के काँठे, नर्मदा की ऊपरली घाटी और पचमढ़ी से अमरकंटक तक ॠक्ष पर्वत का हिस्सा सम्मिलित है । उसकी पूरबी सीमा टोंस (तमसा) नदी है ।"१  यह सीमांकन पुराणों द्वारा निर्देशित जनपदों की सीमा रेखाओं के बहुत निकट है । वर्तमान भौतिक शोधों का आधार पर बुंदेलखंड की सीमाएँ इस प्रकार निर्धारित की गई हैं-" वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विंध्य प्लेटो की श्रेणियों उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिणा-पूर्व में पन्ना-अज़यगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है । उसमें उत्तर प्रदेश के चार जिले-जालौन, झांसी, हमीरपुर और बाँदा तथा मध्यप्रदेश के चार जिले-दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर और पन्ना के अलावा उत्तर-पश्चिम में भिंड जिले की लहार और ग्वालियर जिले की भांडेर तहसीलें भी सम्मिलित है ।"२  ये सीमारेखाएँ भू-संरचना की दृष्टि से उचित कही जा सकती है, किंतु इतिहास, संस्कृति और भाषा की दृष्टि से बुंदेलखंड बहुत विस्तृत प्रदेश है।

जनपद भूखंड की एक ऐसी इकाई है, जो उसके निवासियों के विविध संस्कारों की समानता और एकता से निर्मित होती है। इसी वास्तविकता के आधार पर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने प्राचीन काल के जनपद को एक सांस्कृतिक भौगोलिक इकाई की संज्ञा से अभिहित किया है।३ जनपदीय चेतना का उदय रामायण और महाभारत-काल से हो चुका था। महाभारत कालीन चेदि जनपद की पहचान पार्जिटर ने वर्तमान बुंदेलखंड से की है। उनके मतानुसार चेदि देश उत्तर में यमुना का दक्षिणी तट से दक्षिण में मालवा के पठार और बुंदेलखंड की पहाड़ियों तक तथा दक्षिण-पूर्व में चित्रकूट के उत्तर-पूर्व में बहने वाली कार्वी नदी से उत्तर-पश्चिम में चंबल नदी तक प्रसारित विस्तृत प्रदेश का नाम था।४ डॉ. वी. वी. मिराशी के अनुसार मध्यकाल में उसका विस्तार नर्मदा तक हो गया था। अधिकांश इतिहासकारों ने इस सीमांकन को सही माना है। कुछ इतिहासकार प्राचीन जनपदों के सीमांकन का आधार सांस्कृतिक मानते हैं; लेकिन महाभारतकालीन युद्धों से प्रकट है कि जनपद की सीमाओं का विस्तार राजा और सेना पर निर्भर होता था, संस्कृति के प्रसार-प्रचार पर नहीं । अतएव उसे किस सीमा तक सांस्कृतिक माना जाय, एक टेढ़ा प्रश्न है। फिर भी इन जनपदों में लोकरुचि मूल्यवान् समझी जाती थी और गणराज्यों में गण-परिषद् राजा को पदच्युत कि सकती थी, इस दृष्टि से जनपद को लोकरुचि और लोकसंस्कृति का प्रतिनिधि प्रदेश माना जा सकता है। डॉ. वी. वी. मिराशी के अनुसार मध्यकाल में उसका विस्तार नर्मदा तक हो गया था । अधिकांश इतिहासकारों ने इस सीमांकन को सही माना है। कुछ इतिहासकार प्राचीन जनपदों के सीमांकन का आधार सांस्कृतिक मानते हैं; लेकिन महाभारतकालीन युद्धों से प्रकट है कि जनपद की सीमाओं का विस्तार राजा और सेना पर निर्भर होता था, संस्कृति के प्रसार-प्रचार पर नहीं । तथापि जनपदों में लोकरुचि मूल्यवान् समझी जाती थी और गणराज्यों में गण-परिषद् राजा को पदच्युत कर सकती थी।

चंदेलकाल में जेजाभुक्ति (जिसका समीकरण बुंदेलखंड से किया गया है) की सीमाएँ वर्तमान बुंदेलखंड से विस्तृत थीं । चंदेलों के राज्य में ऐसे भी क्षेत्र थे, जो भिन्न लोकसंस्कृति के थे और जिनकी लोकभाषा बुंदेली न होकर बघेली, कन्नौजी और ब्रजी थी। दीवान प्रतिपाल सिंह के अनुसार पूर्व में टोंस और सोन नदियाँ अथवा बघेलखंड या रीवाँ राज्य है तथा बनारस के निकट बुंदेला नाले तक सिलसिला चला गया है । पश्चिम में बेतवा, सिंध और चंबल नदियाँ, विंध्याचल श्रेणी तथा मालवा, सिंधिया का ग्वालियर राज्य और भोपाल राज्य हैं तथा पूर्वी मालवा इसी में आता है । उत्तर में यमुना और गंगा नदियाँ अथवा इटावा, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर तथा बनारस के जिले हैं, दक्षिण में नर्मदा नदी व मालवा हैं।५ दीवान जू ने बुंदेलखंड की बृहत्तर मूर्ति की रचना की है । पं. गोरेलाल तिवारी ने निर्णय लिया है-" इस भू-भाग के उत्तर में यमुना का प्रचंड प्रवाह, पश्चिम में मंद-मंद बहने वाली चंबल और सिंध नदियाँ, दक्षिण में नर्मदा नदी और पूर्व में बघेलखंड है।"६ प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् कनिंघम ने भी सीमा-निर्धारण का प्रयत्न किया है । उनके अनुसार " बुंदेलखंड के अधिकतम विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चंदेरी और सागर के जिलें सहित विंध्यवासिनी देवी के मंदिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्लहारी तक प्रसरित था, रहा है"।७ लेकिन इस सीमांकन में चंदेलकालीन मूर्तिकला और स्थापत्य का आधार ही मुख्य प्रतीत होता है। इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने भी इसी सीमा को मान्यता प्रदान की है।८

जनपदीय भाषा या बोली, जनपद की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की मध्यम होती है। लोकसंस्कृति गतिशील होती है, इसलिए उसमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन स्वाभाविक है, लेकिन लोकभाषा जनपद के इतिहास और संस्कृति की सतत् साक्षी होती है, इसलिए जनपद की सीमाएँ लोकभाषा के क्षेत्र से निर्धारित करना उचित है। सर्वप्रथम विलियम कैरे ने, जो १७९३ ई. में भारत आए थे, अपने भाषा-सर्वेक्षण के प्रतिवेदन में ३३ भारतीय भाषाओं की सूची में बुंदेलखंडी पर भी विचार किया था और उसका नमूना भी दिया था।९ सन् १८३८ से १८४३ ई. के बीच मे राबर्ट लीच ने बुंदेलखंड की हिन्दवी बोली के व्याकरण का निर्माण किया था ।१० उपरांत सर जार्ज ए. ग्रियर्सन ने बुंदेलखंडी पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया और प्रत्येक क्षेत्र की बुंदेली भाषा पर वीचार करते हुए बुंदेली की सीमाएँ खोजीं। उनके अनुसार बुंदेली भाषा का क्षेत्र बुंदेलखंड के राजनीतिक क्षेत्र से मिलता-जुलता नहीं है। वह उत्तर में चंबल नदी के उस पार आगरा, मैनपुरी, इटावा जिलों के दक्षिणी भागों तक; पश्चिम में चंबल नदी तक न होकर पूर्वी ग्वालियर तक; दक्षिण में सागर और दमोह तक ही नहीं, वरन् भोपाल के पूर्वी ग्वालियर तक; दक्षिण में सागर रऔर दमोह तक ही नहीं, वरन् भोपाल के पूर्वी भागों, नर्मदा के दक्षिण में नरसिंहपुर, होशंगाबाद सिवनी जिलों तथा बालाघाट और छिंदवाड़ा के कुछ क्षेत्रों तक फैला हुआ है । पुर्व में पुरे बाँदा जिले की भाषा बुंदेली नहीं है।११ श्री कृष्णानंद गुप्त ने इसी सीमांकन का अनुसरण किया है।१२ किंतु डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल ने और भी विस्तार कर दिया है। उन्होंने उत्तर में पूरा मुरैना जिला, पश्चिम में शिवपुरी और गुना के पूरे जिले तथा दक्षिण में बैतूल जिला अर्थात् ताप्ती नदी की तटीय सीमा तक का पूरा क्षेत्र बुंदेली क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया है।१३ इसी प्रकार डॉ. महेशप्रसाद जायसवाल ने मध्यप्रदेश के दुर्ग जिले का कुछ भाग, उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले का कुछ भाग और महाराष्ट्र के चाँदा, बुल्डाना, भंडारा, अकोला जिलों के भागों को भी समाविष्ट कर लिया है।१४ भाषाविद् डॉ. उदयनारायण तिवारी, डॉ. हरदेव बाहरी आदि ने ग्रियर्सन की सीमाओं को ही मान्यता दी है।१५ वास्तव में, ग्रियर्सन के भाषा-सर्वेक्षण के बाद कोई दूसरा योजनाबद्ध प्रयत्न नहीं किया गया। डॉ। धीरेन्द्र वर्मा तथा नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार बुंदेलखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाइयों में अद्भुत समानता है । भूगोलवेत्ताओं का मत है कि बुंदेलखंड की सीमाएँ स्पष्ट हैं, और भौतिक तथा सांस्कृतिक रूप में निश्चित हैं । वह भारत का एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें न केवल संरचनात्मक एकता, भौम्याकार की समानता और जलवायु की समता है, वरन् उसके इतिहास, अर्थव्यवस्था और सामाजिकता का आधार भी एक ही है । 

समस्त बुंदेलखंड में सच्ची सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक एकता है ।१६ बुंदेलखंड प्रदेश में निम्नलिखित जिले और उनके भाग आते हैं और उनसे इस प्रदेश की एक भौगोलिक, भाषिक एवं सांस्कृतिक इकाई बनती है। लगभग डेढ़ लाख वर्ग किमी में फैले क्षेत्र को बुन्देलखण्ड की वर्तमान आवादी लगभग 3 करोङ से ज्यादा हैं। इस क्षेत्र में प्रायः पठारी भूमि है। जहां औसत वर्षा 60 - 100 सेमी के लगभग होती हैं। बुन्देलखण्ड क्षेत्र को भारत में दलहन (अरहर, चना) व तिलहन (अलसी) उपज का सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र होने का गौरव प्राप्त हैं। यहां की प्रमुख नदियां यमुना, बेतवा , केन, पहूज, धसान, चम्बल, काली, सिन्ध, टौंस व सोन हैं। सागौन, शीशम, चन्दन, आम, महुआ आदि प्रमुख वन सम्पदायें हैं। शौर्य और श्रृंगार की धरती बुन्देलखण्ड की कला संस्कृति सबसे अनूठी है। यहां बोली जाने वाली मधुर बोली बुन्देली हैं। संयुक्त विन्ध्यप्रदेश का  गठन १२ मार्च १९४८ को किया गया था। संयुक्त विन्ध्यप्रदेश के दो मुख्यालय अ- बुन्देलखण्ड राजधानी नौगाँव (मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना) तथा आ- बघेलखण्ड राजधानी रीवा (मुख्यमंत्री रीवा नरेश) थे। 

(१) उत्तर प्रदेश के जालौन, झाँसी, ललितपुर, हमीरपुर जिले और बाँदा जिले की नरैनी एवं करबी तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग तथा (२) मध्यप्रदेश के पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया, सागर, दमोह, नरसिंहपुर जिलेतथा जबलपुर जिले की जबलपुर एवं पाटन तहसीलों का दक्षिणी और दक्षिण-पश्चिमी भाग; होशंगाबाद जिले की होशंगाबाद और सोहागपुर तहसीलें; रायसेन जिले की उदयपुर, सिलवानी, गौरतगंज, बेगमगंज, बरेली तहसीलें एवं रायसेन, गौहरगंज तहसीलों का पूर्वी भाग; विदिशा जिले की कुरवई तहसील और विदिशा, बासौदा, सिरोंज तहसीलों के पुर्वी भाग; गुना जिले की अशोकनगर (पिछोर) और मुंगावली तहसीलों; शिवपुरी जिले की पिछोर और करैरा तहसीलें, ग्वालियर की पिछोर, भांडेर तहसीलों और ग्वालियर गिर्द का उत्तर-पूर्वी भाग; किंभड जिले की लहर तहसील का दक्षिणी भाग।

 बुन्देलखंडी राम कथा 

विविध काल खंडों में बुंदेलखंड और गोंडवाना संज्ञा से केन्द्रीय भारत का बाद भाग संबोधित किया जाता रहा है। लोकमाता वीरांगना दुर्गावती के गुरु स्वामी नरहरी दास (तपस्थली नेताजी सुभाष चंद्र बोस मेडिकल कॉलेज जबलपुर के निकट, पिसनहारी मढ़िया के बाजू में पहाड़ी पर) गोस्वामी तुलसीदास जी (रामबोला) के भी गुरु थे। बालक रामबोला गुरु के साथ बुंदेलखंड में भ्रमण करते समय बुंदेली भाषा और संस्कृति से परिचित होता रहा। बुंदेली का विकास बृज भाषा से मान्य है। अवधी, कन्नौजी और भोजपुरी क्षेत्र से निरंतर संपर्क के कारण इस अञ्चल की लोक भाषा में शब्दों का आदान-प्रदान करने की प्रवृत्ति रही है। यही प्रवृत्ति रामचरित मानस में भी है। इसीलिए मानस को बुंदेली, बृज, भोजपुरी, कन्नौजी और अवधी भाषी अपनी बोली की कृति मानते रहे हैं। वास्तव में मानस इनमें से किसी भी एक बोलो में रची गई कृति नहीं है, वह इन सबके शब्द भंडार से समृद्ध-संपन्न कृति है इसलिए हर अञ्चल के निवासी को वह अपनी सी प्रतीत होती है। तुलसी लोक कवि थे, उन्होंने राज्याश्रय ठुकराकर रामाश्रय ग्रहण किया था। राम अवध, बुंदेलखंड, छतीसगढ़ होते हुए दक्षिण गए थे। तुलसी भी अपने गुरु के साथ इसी अंचल में प्रवास करते रहे थे। यात:, उनकी कृति की भाषा इस अंचल से प्रभावित होना स्वभाविक है।  


की बुंदेली रामायण भी इसका अपवाद नहीं है। मौखिक रूप में गाई जाने वाली बुंदेली रामायण में निम्नलिखित घटनाओं को जोड़ा गया है ताकि वाल्मीकि रामायण के कुछ अनुत्तरित प्रश्नों पर प्रकाश डाला जा सके जैसे कि राम की बहन कौन थी?

राम की बहन शांता के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। वाल्मीकि रामायण में उनका ज़िक्र सिर्फ़ एक बार आता है, जब दशरथ ने ऋषि ऋष्यश्रृंग को पुत्रकामेष्ठी का यज्ञ संपन्न कराने के लिए आमंत्रित किया था , ताकि उन्हें पुत्र और राज्य का उत्तराधिकारी मिल सके। यज्ञ पूरा होने के बाद दशरथ ने अपनी बेटी शांता का विवाह ऋष्यश्रृंग से कर दिया, ताकि वे यज्ञ संपन्न कराने के बदले में अपनी बेटी शांता का विवाह कर सकें। वाल्मीकि हमें शांता के जन्म के बारे में कुछ नहीं बताते। यह सवाल इसलिए दिलचस्प हो जाता है क्योंकि दशरथ की सभी रानियाँ निःसंतान थीं। तो फिर शांता की माँ कौन थी? बुंदेली रामायण में इस कमी को निम्नलिखित कहानी के ज़रिए दूर करने की कोशिश की गई है।

एक बार राजा दशरथ और उनके मित्र राजा जनक शिकार के लिए निकले थे। जब वे अपने शिकार का पीछा कर रहे थे, तो राजा दशरथ अनजाने में एक ऐसे जंगल में चले गए जहाँ पुरुषों का प्रवेश वर्जित था। मान्यता थी कि जंगल में स्त्री शक्ति होती है और यह जंगल महिलाओं के लिए पूरी तरह से आरक्षित था, और अगर कोई पुरुष जंगल में प्रवेश करता, तो वह महिला बन जाता। दशरथ, संयोग से जंगल में घुस गए और एक महिला बन गए। कई सालों तक वे महिला के रूप में घूमते रहे। फिर एक दिन उनकी मुलाकात एक पुरुष से हुई, उन्होंने उसके साथ संबंध बनाए और एक बच्चे को जन्म दिया। इस महिला का नाम शांता रखा गया। शांता के जन्म के बाद, दशरथ ने अपना पुरुषत्व वापस पा लिया और बच्चे को लेकर अपने महल में लौट आए। इस तरह शांता दशरथ की पहली संतान बन गई, लेकिन वे उसकी माँ थे।



एक और रहस्यमय प्रश्न जिसका कोई उत्तर नहीं है, वह यह है कि जनक ने सीता स्वयंवर में दशरथ के पुत्रों को क्यों नहीं आमंत्रित किया ?

जनक और दशरथ बहुत अच्छे मित्र थे, फिर भी जब जनक ने अपनी प्यारी बेटी का विवाह करने का फैसला किया, तो उन्होंने दशरथ के बेटों को स्वयंवर के लिए योग्य राजकुमार के रूप में आमंत्रित नहीं किया । क्यों? वास्तव में वाल्मीकि ने अपनी रामायण में इसका कारण कभी नहीं बताया। लेकिन बुंदेली रामायण इस रहस्य का स्पष्टीकरण देती है।

एक बार राजा जनक शिकार खेलते हुए राजा दशरथ के क्षेत्र में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने शिकार को मारने के लिए जो बाण चलाया वह एक गाय को छेदकर वहीं मर गया। जनक को अपने द्वारा किए गए पाप का एहसास हुआ और उन्होंने तुरंत दशरथ के दरबार में एक दूत भेजकर उनसे उनके पाप के प्रायश्चित के लिए उचित दंड देने को कहा। लेकिन दशरथ व्यस्त थे और उन्होंने दूत से कहा, "आप अयोध्या के किसी भी नागरिक से दंड देने के लिए कह सकते हैं और वह मेरा वचन माना जाएगा"। दूत दशरथ के शब्दों के साथ जनक के पास लौट आया। जनक ने दशरथ द्वारा अपमानित महसूस किया क्योंकि उन्होंने अपने मित्र जनक की दुर्दशा को संबोधित करने के लिए समय नहीं निकाला। वह अयोध्या के एक ऐसे नागरिक की खोज में निकल पड़े जो गो-हत्या , गाय की हत्या के घोर पाप से मुक्ति का उपाय बता सके।

रास्ते में उनकी मुलाकात एक बुजुर्ग व्यक्ति से हुई जिसने जनक से पूछा कि वह उदास और निराश क्यों हैं। जनक ने उन्हें बताया कि उन्होंने गाय की हत्या करके क्या पाप किया था और साथ ही राजा दशरथ का फैसला भी बताया। बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा "हे राजन, चिंता न करें मैं आपकी परेशानी से आपको बाहर निकालूंगा। मुझे गाय दिखाओ।" जनक ने उन्हें मृत गाय दिखाई। जैसे ही बूढ़े व्यक्ति ने गाय को छुआ वह वापस जीवित हो गई। बूढ़ा व्यक्ति जनक की ओर मुड़ा और कहा, "हे जनक अब जब गाय जीवित है तो कोई पाप नहीं है। बिना किसी पश्चाताप के अपने राज्य वापस जाओ।" जनक ने अनुमान लगाया कि बूढ़ा व्यक्ति अयोध्या का एक महान ऋषि होगा और बड़ी श्रद्धा के साथ उसके पैर छूने की कोशिश की। लेकिन बूढ़े व्यक्ति ने उन्हें अपने पैरों पर गिरने से रोक दिया और कहा, "हे राजा जनक, मेरे पैर मत छुओ

वर्षों बाद, जब अपनी सुंदर पुत्री के स्वयंवर के लिए विश्व भर के सभी योग्य राजकुमारों को निमंत्रण भेजने का समय आया , तो जनक को यह घटना याद आई। उन्होंने मन ही मन सोचा। दशरथ हमेशा अपनी प्रजा में व्यस्त रहते हैं और उन्हें अपने प्रिय मित्र की सहायता करने का भी समय नहीं मिलता। राजा के स्थान पर एक साधारण सफाईकर्मी ने मुझे मेरे पाप से मुक्त करने का निर्णय सुनाया। यदि मैं निमंत्रण भेजूं और दशरथ उसकी जगह किसी तुच्छ व्यक्ति को भेज दें और यदि वह शिवधनुष को उसी प्रकार उठा ले, जिस प्रकार सफाईकर्मी ने मृत गाय को जीवित किया था, तो क्या होगा? मुझे अपनी प्यारी पुत्री सीता का विवाह किसी तुच्छ सफाईकर्मी से करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में मैं दशरथ को निमंत्रण नहीं भेजना चाहूंगा। इस प्रकार राम और लक्ष्मण बिन बुलाए अतिथि के रूप में सीता के स्वयंवर में भाग लेते हैं।

वाल्मीकि रामायण में एक और सवाल अनुत्तरित रह गया है कि
सीता ने अपने सारे राजसी आभूषण त्यागकर राम के साथ वनवास के लिए प्रस्थान किया था, लेकिन फिर भी उनके पास दो स्वर्ण आभूषण कैसे थे? बुंदेली रामायण इस विसंगति को इस तरह से समझाती है।

चौदह वर्ष का वनवास पूरा होने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता अयोध्या लौटते हैं। केवट, केवट उन्हें वापस अयोध्या की धरती पर लाता है। जैसे ही तीनों अयोध्या की मिट्टी को छूते हैं, केवट बड़ी श्रद्धा के साथ राम के चरण स्पर्श करता है। राम को लगता है कि उन्हें केवट के रूप में उनकी सेवा के लिए उन्हें कुछ शुल्क देना चाहिए। लेकिन राम के पास देने के लिए कुछ नहीं होता। राम के पास खड़ी सीता को राम की दुविधा का एहसास होता है और वह जल्दी से अपनी उंगली से अंगूठी निकालकर राम को दे देती है। राम प्रसन्न होते हैं और केवट को केवट के रूप में उनकी सेवाओं के लिए अंगूठी प्रदान करते हैं।
मन में यह प्रश्न आता है कि चूंकि राम, लक्ष्मण और सीता वनवास जाते समय अपने सभी राजसी आभूषण और प्रतीक चिन्ह पीछे छोड़ गए थे, तो सीता की उंगलियों में राजसी अंगूठी कैसे थी?

जब सीता ने अपने सारे आभूषण उतार दिए और अपने पति की तरह संन्यासी के वस्त्र पहन लिए, तो उन्होंने अपने पास दो आभूषण रख लिए। चूड़ामणि, जो उन्होंने हनुमान को दी और अंगूठी, जो उन्होंने केवट को दी। वनवास जाते समय सीता ने ये दोनों आभूषण अपने पास क्यों रखे?

सीता के पास बचे इन दो आभूषणों के पीछे की कहानी यह है कि ये दोनों आभूषण अयोध्या के राजकोष से नहीं थे। ये दिव्य वस्तुएं थीं जो कभी शिव की थीं। शिव और पार्वती के विवाह के समय शिव ने अपनी कलाई में नागों का एक कंगन लपेटा हुआ था। लेकिन शिव ने जल्दबाजी में उस कंगन को इतना कस कर बांध दिया था कि दर्द के कारण उसकी आंखों से दो आंसू की बूंदें गिर गईं और वे दो रत्नों में बदल गईं। शिव ने इन रत्नों को अपने पास सुरक्षित रख लिया।

ऐसा कहा जाता है कि सीता की माँ सुनैना एक नाग की बेटी थीं जो शिव की बहुत बड़ी भक्त थीं। जनक से विवाह के दौरान शिव ने ये दो रत्न उपहार में दिए थे, एक चूड़ामणि के रूप में और दूसरा अंगूठी में जड़ा हुआ, अपने भक्त की बेटी सुनैना को। सुनैना ने बदले में चूड़ामणि सीता को भेंट की।

रत्न जड़ित अंगूठी के बारे में एक और कहानी है जो बताती है कि यह सीता के पास कैसे आई। जब जनक समधी या दुल्हन के पिता के रूप में दशरथ से मिले, तो परंपरा के अनुसार उन्हें दूल्हे के पिता दशरथ को एक उपहार देना था। उन्होंने सुनैना से कहा कि वह अपने खजाने से सबसे अच्छा रत्न लाकर दशरथ को भेंट करें। सुनैना ने उन्हें वह अंगूठी दी जो उन्हें भगवान शिव ने दी थी।

जब राम जनक द्वारा आयोजित स्वयंवर में जीतने के बाद अपनी दुल्हन को पहली बार अयोध्या लाए , तो प्रथा के अनुसार, सास को बहू को घर में प्रवेश दिलाते समय एक आभूषण उपहार में देना था। इस प्रथा को मुँह देखी के रूप में जाना जाता है । कौशल्या ने इस संस्कार को करने के लिए दशरथ से अपने खजाने से सर्वश्रेष्ठ आभूषण देने के लिए कहा। दशरथ ने उन्हें वह अंगूठी दी, जो उन्हें जनक से मिली थी। इस प्रकार कौशल्या ने सीता को वही अंगूठी दी, जो शिव ने सुनैना को उपहार में दी थी।

इस प्रकार ये दोनों आभूषण सीता के पास रहे क्योंकि ये भगवान शिव से प्राप्त दिव्य वस्तुएं थीं। सीता ने अपने वनवास के दौरान इन दोनों आभूषणों को अपने साथ रखा क्योंकि ये दैवीय मूल के आभूषण थे और साथ ही ये शाही खजाने से संबंधित नहीं थे।
***
१. भारतभूमि और उसके निवासी, जयचंद्र विद्यालंकार, १९३१. पृ. ६५
२. इंडिया : ए रीजनल ज्यॉग्रफी, सं. आर. एल. सिंह, १९७१, पृ. ५९७
३. मार्कण्डेय पुराण (एक सांस्कृतिक अध्ययन), वासुदेव शरण अग्रवाल, १९६१. पृ. १५२
४. मार्कण्डेय पुराण (अंग्रेजी अनुवाद), एफ. ई. पार्जिटर, पृ. ३५९। 
५. बुदेलखंड का इतिहास, प्रथम भाग, दीवान प्रतिपाल सिंह, सं. १९८५, पृ. ५. 
६. बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास, गोरेलाल तिवारी, सं. १९९०, पृ. १। 

७. दि ऐनशिएंट ज्यॉग्रफी आॅव इण्डिया, ए. कनिंघम, १९६३, पृ. ४०६। 

८. एपिग्रैफिया इंडिका, भाग ३०, पृ. १३०। 

९. भारत का भाषा-सर्वेक्षण, खंड १, भाग १, अनु. उदयनारायण तिवारी, १९५९, भूमिका, पृ. २४। 

१०. वही, पृ. २९। 

११. लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया, वाल्युम ९, प्रथम संस्करण, ग्रियर्सन, पृ. ८६। 

१२. बुंदेलखंडी भाषा और साहित्य, कृष्णानंद गुप्त, १९६०, पृ. २। 

१३. बुंदेली का भाषाशास्रीय अध्ययन, डॉ. रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल, १९६३, पृ. एवं भाषा क्षेत्र का मानचित्र।

१४. ए लिंग्विस्टिक स्टडी आॅव बुंदेली, डॉ. एम. पी. जायसवाल, १९६२, इंट्रोडक्शन, पृ. ३। 

१५. हिंदी भाषा का उद्गम ओर विकास, सं. २०२६, पृ. २५४ एवं हिंदी : उद्भव, विकास और रुप, १९७० ई. पृ. ८५ ।

१६.  इंडिया : ए रीजनल ज्यॉग्रफी, सं. आर. एल. सिंह, १९७१, पृ. ३६,६१५,६२०

अलंकरण २०२५

- : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : -
- : अखिल भारतीय हिंदी अलंकरण २०२४-२५ : -
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०९. डॉ. अरविन्द गुरु स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, ५१०० रु., कविता। सौजन्य डॉ. मंजरी गुरु जी, रायगढ़।
१०. विजय कृष्ण शुक्ल स्मृति अलंकरण, ५१०० रु., व्यंग्य लेख। सौजन्य डॉ. संतोष शुक्ला।
११. शिवप्यारी देवी-बेनीप्रसाद स्मृतिअलंकरण, ५१०० रु.। बाल साहित्य (गद्य,पद्य), सौजन्य डॉ. मुकुल तिवारी, जबलपुर।
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१५.सुशील वर्मा स्मृति समाज श्री अलंकरण, २१०० रु., पर्यावरण व समाज सेवा। सौजन्य श्रीमती सरला वर्मा भोपाल।
साक्षात्कार, व्याकरण, पुरातत्व, पर्यटन, आत्मकथा, तकनीकी लेखन, आध्यात्मिक/धार्मिक लेखन, विधि, चिकित्सा, कृषि आदि क्षेत्रों की श्रेष्ठ कृतियों पर अलंकरण तथा पुस्तकोपहार प्रदान किए जाएँगे।
अलंकरण स्थापना
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कृति विमोचन हेतु कृति की ५ प्रतियाँ, सहयोग राशि ५००० रु. रचनाकार तथा किताब संबंधी जानकारी ३० जुलाई तक आमंत्रित है। विमोचित कृति की संक्षिप्त चर्चा कर, कृतिकार का सम्मान किया जाएगा।
वार्षिकोत्सव, ईकाई स्थापना दिवस, किसी साहित्यकार की षष्ठि पूर्ति, साहित्यिक कार्यशाला, संगोष्ठी अथवा अन्य सारस्वत अनुष्ठान करने हेतु इच्छुक ईकाइयाँ / सहयोगी सभापति से संपर्क करें। संस्था की नई ईकाई आरंभ करने हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं।
* सभापति- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' *
* अध्यक्ष- बसंत शर्मा *
* उपाध्यक्ष- जय प्रकाश श्रीवास्तव, मीना भट्ट *
* सचिव - छाया सक्सेना, अनिल बाजपेई, मुकुल तिवारी *
* कोषाध्यक्ष - डॉ. अरुणा पांडे *
* प्रकोष्ठ प्रभारी - अस्मिता शैली, मनीषा सहाय।
जबलपुर, १५.५.२०२५
***

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

जुलाई १, घनाक्षरी, त्रिभंगी, सवाई /समान छंद, पीयूषवर्ष, अचल धृति, सॉनेट, सलिल, दोहा,

सलिल सृजन १ जुलाई
*
पूर्णिका 
नमन सखी 
रहें सुखी 
करें नहीं 
कभी दुखी 
हो न शून्य 
हाथ रखी 
हार-जीत 
विहँस चखी 
धूप-छाँव 
संग दिखी 
सलिल धार 
विमल लखी 
०0०

मुक्तिका
प्रदीप दीप्त तम हरे
सुभाग्य आप नित वरे
.
जड़ें जमीन में जमा
हाथ पर गगन धरे
.
कहे प्रकाश देख जग
सफल प्रयास सुख करे
.
चले न खोट अब तनिक
बसें हृदय सदा खरे
.
सलिल विमल न रुद्ध हो
सुभाव हों मनस भरे
१.७.२०२५
०0०
सॉनेट
कठपुतली
कठपुतली सरकार बन गई
अंगुली नर्तन होगा खूब
जब रिमोट का बटन दबेगा
हलचल तभी मचेगी खूब
इसके कंधे पर उसकी गन
साध निशाना जब मारेगी
सत्ता के गलियारे में तब
छल-बल से निज कुल तारेगी
बगुला भगत स्वांग बहुतेरे
रचा दिखाएँगे निज लीला
जाँच साँच को दफनाएगी
ठाँस करेगी काला-पीला
पाला बदला बात बन गई
चाट अंगुली घी में सन गई
१-७-२०२२
•••
गीत
दे दनादन
*
लूट खा अब
देश को मिल
लाट साहब
लाल हों खिल
ढाल है यह
भाल है वह
आड़ है यह
वार है वह
खेलता मन
झेलता तन
नाचते बन
आप राजन
तोड़ते घर
पूत लायक
बाप जी पर
तान सायक
साध्य है पद
गौड़ है कद
मोल देकर
लो सभासद
देखते कब
है कहाँ सच?
पूछते पथ
जा बचें अब
जेब में झट
ले रखो धन
है खनाखन
दे दनादन
(छंद: कृष्णमोहन)
१-७-२०२२
•••
***
लाड़ले लला संजीव सलिल
कान्ति शुक्ला
*
मानव जीवन का विकास चिंतन, विचार और अनुभूतियों पर निर्भर करता है। उन्नति और प्रगति जीवन के आदर्श हैं। जो कवि जितना महान होता है, उसकी अनुभूतियाँ भी उतनी ही व्यापक होतीं हैं। मूर्धन्य विद्वान सुकवि छंद साधक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का नाम ध्यान में आते ही एक विराट साधक व्यक्तित्व का चित्र नेत्रों के समक्ष स्वतः ही स्पष्टतः परिलक्षित हो उठता है। मैंने 'सलिल' जी का नाम तो बहुत सुना था और उनके व्यक्तित्व, कृतित्व, सनातन छंदों के प्रति अगाध समर्पण संवर्द्धन की भावना ने उनके प्रति मेरे मन ने एक सम्मान की धारणा बना ली थी और जब रू-ब-रू भेंट हुई तब भी उनके सहज स्नेही स्वभाव ने प्रभावित किया और मन की धारणा को भी बल दिया परंतु यह धारणा मात्र कुछ दिन ही रही और पता नहीं कैसे हम ऐसे स्नेह-सूत्र में बँधे कि 'सलिल' जी मेरे नटखट देवर यानी 'लला' (हमारी बुंदेली भाषा में छोटे देवर को लला कहकर संबोधित करते हैं न) होकर ह्रदय में विराजमान हो गए और मैं उनकी ऐसी बड़ी भौजी जो गाहे-बगाहे दो-चार खरी-खोटी सुनाकर धौंस जमाने की पूर्ण अधिकारिणी हो गयी। हमारे बुंदेली परिवेश, संस्कृति और बुंदेली भाषा ने हमारे स्नेह को और प्रगाढ़ करने में महती भूमिका निभाई। हम फोन पर अथवा भेंट होने पर बुंदेली में संवाद करते हुए और अधिक सहज होते गए। अब वस्तुस्थिति यह है कि उनकी अटूट अथक साहित्य-साधना, छंद शोध, आचार्यत्व, विद्वता या समर्पण की चर्चा होती है तो मैं आत्मविभोर सी गौरवान्वित और स्नेहाभिभूत हो उठती हूँ।
व्यक्तित्व और कृतित्व की भूमिका में विराट को सूक्ष्म में कहना कितना कठिन होता है, मैं अनुभव कर रही हूँ। व्यक्तित्व और विचार दोनों ही दृष्टियों से स्पृहणीय रचनाकार'सलिल' जी की लेखनी पांडित्य के प्रभामंडल से परे चिंतन और चेतना में - प्रेरणा, प्रगति और परिणाम के त्रिपथ को एकाकार करती द्वन्द्वरहित अन्वेषित महामार्ग के निर्माण का प्रयास करती दिखाई देती है। उनके वैचारिक स्वभाव में अवसर और अनुकूलता की दिशा में बह जाने की कमजोरी नहीं- वे सत्य, स्वाभिमान और गौरवशाली परम्पराओं की रक्षा के लिए प्रतिकूलता के साथ पूरी ताकत से टक्कर लेने में विश्वास रखते हैं। जहाँ तक 'सलिल'जी की साहित्य संरचना का प्रश्न है वहाँ उनके साहित्य में जहाँ शाश्वत सिद्धांतों का समन्वय है, वहाँ युगानुकूल सामयिकता भी है, उत्तम दिशा-निर्देश है, चिरंतन साहित्य में चेतनामूलक सिद्धांतों का विवरण है जो प्रत्येक युग के लिए समान उपयोगी है तो सामयिक सृजन युग विशेष के लिए होते हुए भी मानव जीवन के समस्त पहेलुओं की विवृत्ति है, जहाँ एकांगी दृष्टिकोण को स्थान नहीं।
"सलिल' जी के रचनात्मक संसार में भाव, विचार और अनुभूतियों के सफल प्रकाशन के लिए भाषा का व्यापक रूप है जिसमें विविधरूपता का रहस्य भी समाहित है। एक शब्द में अनेक अर्थ और अभिव्यंजनाएँ हैं, जीवन की प्रेरणात्मक शक्ति है तो मानव मूल्यों के मनोविज्ञान का स्निग्धतम स्पर्श है, भावोद्रेक है। अभिनव बिम्बात्मक अभिव्यंजना है जिसने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया है। माँ वाणी की विशेष कृपा दृष्टि और श्रमसाध्य बड़े-बड़े कार्य करने की अपूर्व क्षमता ने जहाँ अनेक पुस्तकें लिखने की प्रेरणा दी है, वहीं पारंपरिक छंदों में सृजन करने के साथ सैकड़ों नवीन छंद रचने का अन्यतम कौशल भी प्रदान किया है- तो हमारे लाड़ले लला हैं कि कभी ' विश्व वाणी संवाद' का परचम लहरा रहे हैं, कभी दोहा मंथन कर रहे हैं तो कभी वृहद छंद कोष निर्मित कर रहे हैं ,कभी सवैया कोष में सनातन सवैयों के साथ नित नूतन सवैये रचे जा रहे हैं। सत्य तो यह है कि लला की असाधारण सृजन क्षमता, निष्ठा, अभूतपूर्व लगन और अप्रतिम कौशल चमत्कृत करता है और रचनात्मक कौशल विस्मय का सृजन करता है। समरसता और सहयोगी भावना तो इतनी अधिक प्रबल है कि सबको सिखाने के लिए सदैव तत्पर और उपलब्ध हैं, जो एक गुरू की विशिष्ट गरिमा का परिचायक है। मैंने स्वयं अपने कहानी संग्रह की भूमिका लिखने का अल्टीमेटम मात्र एक दिन की अवधि का दिया और सुखद आश्चर्य रहा कि वह मेरी अपेक्षा में खरे उतरे और एक ही दिन में सारगर्भित भूमिका मुझे प्रेषित कर दी ।
जहाँ तक रचनाओं का प्रश्न है, विशेष रूप से पुण्यसलिला माँ नर्मदा को जो समर्पित हैं- उन रचनाओं में मनोहारी शिल्पविन्यास, आस्था, भाषा-सौष्ठव, वर्णन का प्रवाह, भाव-विशदता, ओजस्विता तथा गीतिमत्ता का सुंदर समावेश है। जीवन के व्यवहार पक्ष के कार्य वैविध्य और अन्तर्पक्ष की वृत्ति विविधता है। प्राकृतिक भव्य दृश्यों की पृष्ठभूमि में कथ्य की अवधारणा में कलात्मकता और सघन सूक्ष्मता का समावेश है। प्रकृति के ह्रदयग्राही मनोरम रूप-वर्णन में भाव, गति और भाषा की दृष्टि से परिमार्जन स्पष्टतः परिलक्षित है । 'सलिल' जी के अन्य साहित्य में कविता का आधार स्वरूप छंद-सौरभ और शब्दों की व्यंजना है जो भावोत्पादक और विचारोत्पादक रहती है और जिस प्रांजल रूप में वह ह्रदय से रूप-परिग्रह करती है , वह स्थायी और कालांतर व्यापी है।
'सलिल' जी की सर्जना और उसमें प्रयुक्त भाषायी बिम्ब सांस्कृतिक अस्मिता के परिचायक हैं जो बोधगम्य ,रागात्मक और लोकाभिमुख होकर अत्यंत संश्लिष्ट सामाजिक यथार्थ की ओर दृष्टिक्षेप करते हैं। जिन उपमाओं का अर्थ एक परम्परा में बंधकर चलता है- उसी अर्थ का स्पष्टीकरण उनका कवि-मन सहजता से कर जाता है और उक्त स्थल पर अपने प्रतीकात्मक प्रयोग से अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है जो पाठक को रसोद्रेक के साथ अनायास ही छंद साधने की प्रक्रिया की ओर उन्मुख कर देता है। अपने सलिल नाम के अनुरूप सुरुचिपूर्ण सटीक सचेतक मृदु निनाद की अजस्र धारा इसी प्रकार सतत प्रवाहित रहे और नव रचनाकारों की प्रेरणा की संवाहक बने, ऐसी मेरी शुभेच्छा है। मैं संपूर्ण ह्रदय से 'सलिल' जी के स्वस्थ, सुखी और सुदीर्घ जीवन की ईश्वर से प्रार्थना करते हुए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ व्यक्त करती हूँ ।
[लेखिका परिचय : वरिष्ठ कहानीकार-कवयित्री, ग़ज़ल, बाल कविता तथा कहानी की ५ पुस्तकें प्रकाशित, ५ प्रकाशनाधीन। सचिव करवाय कला परिषद्, प्रधान संपादक साहित्य सरोज रैमसीकी। संपर्क - एम आई जी ३५ डी सेक्टर, अयोध्या नगर, भोपाल ४६२०४१, संपर्क ९९९३०४७७२६, ७००९५५८७१७, kantishukla47@gamil.com .]
***
सम्माननीय काव्य गुरु आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
इंजी. अमरेंद्र नारायण
[भूतपूर्व महासचिव एशिया पैसिफिक टेलीकौम्युनिटी शुभा आशीर्वाद, १०५५, रिज रोड, साउथ सिविल लाइन्स ,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश दूरभाष +९१ ७६१ २६० ४६०० ई मेल amarnar@gmail.com]
*
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हैं। वे एक कुशल अभियंता, एक सफल विधिवेत्ता, एक प्रशिक्षित पत्रकार और एक विख्यात साहित्यकार तो हैं ही, साथ ही हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार हेतु
निरंतर कार्यरत एक कर्मठ हिंदी सेवी संयोजक भी हैं।
सलिल जी ने कई मधुर गीत लिखे हैं और एक विशेषज्ञ अभियंता के रूप में तकनीकी विषयों पर उपयोगी लेख लिख कर उन्होंने तकनीक के प्रचार में अपना सहयोग भी दिया है । साहित्य, अभियान्त्रिकी और सामाजिक विषयों से जुड़े कई सामयिक विषयों पर उन्होंने मौलिक और व्यावहारिक विचार रखे हैं।
सलिल जी विभिन्न संस्थाओं के सदस्य मात्र ही नहीं हैं, वे कई संस्थाओं के जन्मदाता भी हैं और संयोजक भी हैं। उनकी योग्यता और उनके समर्पित व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर कई लोग साहित्य के क्षेत्र में उन्हें अपना गुरु मानते हैं। साहित्य सृजन हेतु उत्सुक अनेक जनों को उन्होंने विधिवत भाषा, व्याकरण और पिंगल सिखाया और उनके लिखे को तराशा-सँवारा है।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का कोई अभिवक्ता एक प्रतिष्ठित अभियंता हो और पिंगल तथा उरूज का ज्ञाता भी हो- यह कोई साधारण बात नहीं है। विस्मृति के गह्वर से पुराने छंदों को खोज-खोज कर उनका मधुर शब्दावली से श्रृंगार कोई ऐसा शब्द चितेरा ही कर सकता है जिसमें एक विद्वान् की अन्वेषण क्षमता, अभियंता की व्यावहारिक सृजन प्रतिभा और एक सिद्धहस्त कलाकार के सौन्दर्य बोध का सम्यक समन्वय हो। सलिल जी का प्रभावशाली व्यक्तित्व इसी कोटि का है ।
सलिल जी का आग्रह है-
''मौन तज कर मनीषा कह बात अपनी''
यह आज के ऐसे परिवेश में और भी आवश्यक है जहाँ
''तंत्र लाठियाँ घुमाता, जन खाता है मार
उजियारे की हो रही अन्धकार से हार!''
कई रचनाकार संवेदनशील तो होते हैं पर वे मुखर नहीं हो पाते। सलिल जी का कहना है-
''रही सड़क पर अब तक चुप्पी,पर अब सच कहना ही होगा!''
साहित्यकार जब अपना मौन तोड़ता है तो उसकी वाणी कभी गर्जना कर चुनौती देती है तो कभी तीर बन कर बेंधती है । सलिल जी का साहित्यकार इसी प्रकृति का है! सलिल जी शुभ जहाँ है,उसका नमन करते हुए सनातन
सत्य की अभिव्यक्ति में विश्वास रखते हैं।
माँ सरस्वती से उनकी प्रार्थना है-
''अमल -धवल शुचि विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयां''
तिमिर हारिणी
भय निवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति
खेलें तव कैंया
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!''
उम्मीदों की फसल उगाने का आह्वान करते हुए सलिल जी ईश्वर, अपने माता पिता और पुरखों के प्रति भक्ति,श्रद्धा और कृतज्ञता अर्पित कर अपनी विनम्रता और शुभ का सम्मान करने की अपनी प्रवृत्ति का परिचय देते हैं । हर भावुक और संवेदनशील साहित्यकार अपने आस-पास बिखरे परिवेश पर अपनी दृष्टि डालता है और जहाँ उसकी भावुकता ठहर जाती है, वहां उसका चिंतन उसे उद्वेलित करने लगता है । इस ठहराव में भी गति का सन्देश है और आशा की प्रेरणा भी! सलिल जी का आह्वान है-
''आज नया इतिहास लिखें हम
कठिनाई में संकल्पों का
नव हास लिखें हम!''
सलिल जी एक कर्मठ साहित्य साधक और एक सम्माननीय काव्य गुरु भी हैं। अनेक युवा साहित्यकार उनसे प्रेरणा पाकर उत्कृष्ट साहित्य की सर्जना कर रहे हैं। उनका यह योगदान निरंतर फूलता-फलता रहे और उनकी प्रखर प्रतिभा के प्रसून खिलते रहें! हिंदी भाषा के विकास,विस्तार,प्रसार के लिये ऐसे समर्पित साधकों की बहुत आवश्यकता है। उन्हें सप्रेम नमस्कार।
१-७-२०१९
***
कार्यशाला: रचना-प्रति रचना
घनाक्षरी
फेसबुक
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
चमक-दमक साज-सज्जा मुख-मंडल पै
तड़क-भड़क भी विशेष होना चाहिए।
आत्म प्रचार की क्रिकेट का हो बल्लेबाज
लिस्ट कार्यक्रमों वाली पेश होना चाहिए।।
मछली फँसानेवाले काँटे जैसी शब्दावली
हीरो जैसा आकर्षक भेष होना चाहिए।
फेसबुक पर मित्र कैसे मैं बनाऊँ तुम्हे
फेसबुक जैसा भी तो फेस होना चाहिए।।
*
फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यही बेहतर है
फेस 'बुक' हुआ तो छुडाना मजबूरी है।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो
फेस की असलियत जानना जरूरी है।।
फेस रेस करेगा तो पोल खुल जायेगी ही
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं लाइक पे लाइक जो
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।।
१-७-२०१७
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रसानंद दे छंद नर्मदा ३६ : अचल धृति छंद
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी तथा वासव छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अचल धृति छंद से
अचल धृति छंद
संजीव
*
छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
३. खिल-खिल ख़िलक़र मुकुलित मनसिज
हिलमिल झटपट चटपट सरसिज
सचल-अचल सब जग कर सुरभित
दिन कर दिनकर सुर - नर प्रमुदित
***
***
एक बहर दो ग़ज़लें
बहर - २१२२ २१२२ २१२
छन्द- महापौराणिक जातीय, पीयूषवर्ष छंद
*
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
बस दिखावे की तुम्हारी प्रीत है
ये भला कोई वफ़ा की रीत है
साथ बस दो चार पल का है यहाँ
फिर जुदा हो जाए मन का मीत है
ज़िंदगी की असलियत है सिर्फ़ ये
चार दिन में जाए जीवन बीत है
फ़िक्र क्यों हो इश्क़ के अंजाम की
प्यार में क्या हार है क्या जीत है
कब ख़लिश चुक जाए ये किसको पता
ज़िंदगी का आखिरी ये गीत है.
*
संजीव
हारिए मत, कोशिशें कुछ और हों
कोशिशों पर कोशिशों के दौर हों
*
श्याम का तन श्याम है तो क्या हुआ?
श्याम मन में राधिका तो गौर हों
*
जेठ की गर्मी-तपिश सह आम में
पत्तियों संग झूमते हँस बौर हों
*
साँझ पर सूरज 'सलिल' है फिर फ़िदा
साँझ के अधरों न किरणें कौर हों
*
'हाय रे! इंसान की मजबूरियाँ / पास रहकर भी हैं कितनी दूरियाँ' गीत इसी बहर में है।
१-७-२०१६
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दोहा सलिला:
*
रचना निज आनंद हित, करिये रहकर मौन
सृजन हीन होता नहीं, श्रेष्ठ हुआ कब कौन?
*
जग में जितने ढोल हैं, बाहर से सब गोल
जो जितना ज्यादा बड़ा, उतनी ज्यादा पोल
*
जो सब से पीछे खड़ा, हो आगे तत्काल
'पीछे मुड़' के हुक्म से, होता यही कमाल
*
पहुँच विदेशों में करें, जो जाहिर मतभेद
नाक काटकर देश की, नाहक है हर खेद
*
बहुमत जब करता गलत, उचित न हो परिणाम
सही अल्प मत उपेक्षित, अगर- विधाता वाम
*
मौलिकता के निकष पर, अगर हाजिरी श्रेष्ठ
गुणवत्ता को भूलिए, हो कनिष्ठ ही ज्येष्ठ
*
मनमानी के लिये क्यों, व्यर्थ खोजिए ढाल?
मनचाही कर लीजिए, खुद हुजूर तत्काल
१-७-२०१५
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छंद सलिला:
सवाई /समान छंद
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत गुरु लघु लघु ।
लक्षण छंद:
हर चरण समान रख सवाई / झूम झूमकर रहा मोह मन
गुरु लघु लघु ले पदांत, यति / सोलह सोलह रख, मस्त मगन
उदाहरण:
१. राय प्रवीण सुनारी विदुषी / चंपकवर्णी तन-मन भावन
वाक् कूक सी, केश मेघवत / नैना मानसरोवर पावन
सुता शारदा की अनुपम वह / नृत्य-गान, शत छंद विशारद
सदाचार की प्रतिमा नर्तन / करे लगे हर्षाया सावन
२. केशवदास काव्य गुरु पूजित,/ नीति धर्म व्यवहार कलानिधि
रामलला-नटराज पुजारी / लोकपूज्य नृप-मान्य सभी विधि
भाषा-पिंगल शास्त्र निपुण वे / इंद्रजीत नृप के उद्धारक
दिल्लीपति के कपटजाल के / भंजक- त्वरित बुद्धि के साधक
३. दिल्लीपति आदेश: 'प्रवीणा भेजो' नृप करते मन मंथन
प्रेयसि भेजें तो दिल टूटे / अगर न भेजें_ रण, सुख भंजन
देश बचाने गये प्रवीणा /-केशव संग करो प्रभु रक्षण
'बारी कुत्ता काग मात्र ही / करें और का जूठा भक्षण
कहा प्रवीणा ने लज्जा से / शीश झुका खिसयाया था नृप
छिपा रहे मुख हँस दरबारी / दे उपहार पठाया वापिस
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिभंगी, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, समान, सरस, सवाई, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
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छंद सलिला:
त्रिभंगी छंद
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छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत गुरु, चौकल में पयोधर (लघु गुरु लघु / जगण) निषेध।
लक्षण छंद:
रच छंद त्रिभंगी / रस अनुषंगी / जन-मन संगी / कलम सदा
दस आठ आठ छह / यति गति मति सह / गुरु पदांत कह / सुकवि सदा
उदाहरण:
१. भारत माँ परायी / जग से न्यारी / सब संसारी नमन करें
सुंदर फुलवारी / महके क्यारी / सत आगारी / चमन करें
मत हों व्यापारी / नगद-उधारी / स्वार्थविहारी / तनिक डरें
हों सद आचारी / नीति पुजारी / भू सिंगारी / धर्म धरें
२. मिल कदम बढ़ायें / नग़मे गायें / मंज़िल पायें / बिना थके
'मिल सकें हम गले / नील नभ तले / ऊग रवि ढ़ले / बिना रुके
नित नमन सत्य को / नाद नृत्य को / सुकृत कृत्य को / बिना चुके
शत दीप जलाएं / तिमिर हटायें / भोर उगायें / बिना झुके
३. वैराग-राग जी / तुहिन-आग जी / भजन-फाग जी / अविचल हो
कर दे मन्वन्तर / दुःख छूमंतर / शुचि अभ्यंतर अविकल हो
बन दीप जलेंगे / स्वप्न पलेंगे / कर न मलेंगे / उन्मन हो
मिल स्वेद बहाने / लगन लगाने / अमिय बनाने / मंथन हो
१-७-२०१४
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिभंगी, त्रिलोकी, दण्डकला, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
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विमर्श
साईं, स्वरूपानंद और मैं
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स्वामी स्वरूपानंद द्वारा उठायी गयी साईं संबंधी आपत्ति मुझे बिलकुल ठीक प्रतीत होती है। एक सामान्य व्यक्ति के नाते मेरी जानकारी और चिंतन के आधार पर मेरा मत निम्न है:
१. सनातन: वह जिसका आदि अंत नहीं है अर्थात जो देश, काल, परिस्थिति का नियंत्रण-मार्गदर्शन करने के साथ-साथ खुद को भी चेतन होने के नाते परिवर्तित करता रहता है, जड़ नहीं होता इसी लोए सनातन धर्म में समय-समय पर देवी-देवता , पूजा-पद्धतियाँ, गुरु, स्वामी ही नहीं दार्शनिक विचार धाराएं और संप्रदाय भी पनपते और मान्य होते रहे हैं।
२. देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी वर्णित हैं। आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को ओशो कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी ओशो हो अंतर यह है की मैं जानता हूँ कि मैं ओशो हूँ, तुम नहीं जानते। अतः साईं को कोई साईं भक्त भगवान माँने और पूजे इसमें किसी सनातन धर्मी को आपत्ति नहीं हो सकती।
३. रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है।
देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता - स्त्री देवता आदि।
४. बाली, शंबूक, बर्बरीक, अश्वत्थामा, दुर्योधन जैसे अन्य भी अनेक प्रसंग हैं किन्तु इनका साईं से कुछ लेना-देना नहीं है। इनपर अलग-अलग चर्चा हो सकती है। राम और कृष्ण का देवत्व इन पर निर्भर नहीं है।
५. बुद्ध और महावीर का सनातन धर्म से विरोध और नव पंथों की स्थापना लगभग समकालिक होते हुए भी बुद्ध को अवतार मानना और महावीर को अवतार न मानना अर्थात बौद्धों को सनातनधर्मी माना जाना और जैनियों को सनातन धर्मी न माना जाना भी साईं से जुड़ा विषय नहीं है और पृथक विवेचन चाहता है।
६. अवतारवाद के अनुसार देवी - देवता कारण विशेष से प्रगट होते हैं फिर अदृश्य हो जाते हैं, इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वे नष्ट हो जाते हैं। वे किसी वाहन से नहीं आते - जाते, वे शक्तियां रूपांतरित या स्थानांतरित होकर भी पुनः प्रगट होती हैं, एक साथ अनेक स्थानों पर भी प्रगट हो सकती हैं। यह केवल सनातन धर्म नहीं इस्लाम, ईसाई आय अन्य धर्मों में भी वर्णित है। हरि अनंत हरि कथा अनंता, उनके रूप भी अनंत हैं, प्रभु एक हैं वे भक्त की भावनानुसार प्रगट होते हैं, इसीलिए एक ईश्वर के भी अनेक रूप हैं गोपाल, मधुसूदन, श्याम, कान्हा, मुरारी आदि। इनके मन्त्र, पूजन विधि, साहित्य, कथाएं, माहात्म्य भी अलग हैं पर इनमें अंतर्विरोध नहीं है। सत्यनारायण, शालिग्राम, नृसिंह और अन्य विष्णु के ही अवतार कहे गये हैं।
७. गौतमी, सरस्वती और ऐसे ही अनेक अन्य प्रकरण यही स्थापित करते हैं की सर्व शक्तिमान होने के बाद भी देवता आम जनों से ऊपर विशेषधिकार प्राप्त नहीं हैं, जब वे देह धारण करते हैं तो उनसे भी सामान्य मनुष्यों की तरह गलतियां होती हैं और उन्हें भी इसका दंड भोगना होता है। 'to err is human' का सिद्धांत ही यहाँ बिम्बित है। कर्मफलवाद गीता में भी वर्णित है।
८. रामानंद, नानक, कबीर, चैतन्य, तुलसी, सूर, कबीर, नानक, मीरा या अन्य सूफी फकीर सभी अपने इष्ट के उपासक हैं। 'राम ते अधिक राम के दासा'… सनातन धर्मी किसी देव के भाकर से द्वेष नहीं करता। सिख का अस्तित्व ही सनातन की रक्षा के लिए है, उसे धर्म, पंथ, सम्प्रदाय कुछ भी कहें वह "ॐ" ओंकार का ही पूजक है। एक अकाल पुरुख परमब्रम्ह ही है। सनातन धर्मी गुरुद्वारों को पूजास्थली ही मानता है। गुरुओं ने भी राम,कृष्णादि को देवता मन कर वंदना की है और उनपर साहित्य रचा है।
९. वाल्मीकि को रामभक्त और आदिकवि के नाते हर सनातनधर्मी पूज्य मानता है। कोई उनका मंदिर बनाकर पूजे तो किसी को क्या आपत्ति? कबीर, तुलसी, मीरा की मूर्तियां भी पूजा ग्रहों और मंदिरों में मिल जायेंगी।
१०. साईं ईश्वरतत्व के प्रति नहीं साईं को अन्य धर्मावलम्बियों के मंदिरों, पूजाविधियों और मन्त्रों में घुसेड़े जाने का विरोध है। नमाज की आयात में, ग्रंथसाहब के सबद में, बाइबल के किसी अंश में साईं नाम रखकर देखें आपको उनकी प्रतिक्रिया मिल जाएगी। सनातन धर्मी ही सर्वाधिक सहिष्णु है इसलिए इतने दिनों तक झेलता रहा किन्तु कमशः साईं के नाम पर अन्य देवी-देवताओं के स्थानों पर बेजा कब्ज़ा तथा मूल स्थान पर अति व्यावसायिकता के कारन यह स्वर उठा है।
अंत में एक सत्य और स्वरूपानंद जी के प्रति उनके कांग्रेस मोह और दिग्विजय सिंग जैसे भ्रष्ट नेताओं के प्रति स्नेह भाव के कारण सनातनधर्मियों की बहुत श्रद्धा नहीं रही। मैं जबलपुर में रहते हुए भी आज तक उन तक नहीं गया। किन्तु एक प्रसंग में असहमति से व्यक्ति हमेशा के लिए और पूरी तरह गलत नहीं होता। साईं प्रसंग में स्वरूपानंद जी ने सनातनधर्मियों के मन में छिपे आक्रोश, क्षोभ और असंतोष को वाणी देकर उनका सम्मान पाया है। यह दायित्व साइभक्तों का है की वे अपने स्थानों से अन्य देवी-देवताओं के नाम हटाकर उन्हें साईं को इष्ट सादगी, सरलता और शुचितापरक कार्यपद्धति अपनाकर अन्यों का विश्वास जीतें। चढोत्री में आये धन का उपयोग स्थान को स्वर्ण से मरहने के स्थान पर उन दरिद्रों के कल्याण के लिए हो जिनकी सेवा करने का साईं ने उपदेश दिया। अनेक इत्रों के बयां पढ़े हैं की वे स्वरूपानंद जी के बीसियों वर्षों से भक्त हैं पर साईं सम्बन्धी वक्तव्य से उनकी श्रद्धा नष्ट हो गयी। ये कैसा शिष्यत्व है जो दोहरी निष्ठां ही नहीं रखता गुरु की कोई बात समझ न आने पर गुरु से मार्गदर्शन नहीं लेता, सत्य नहीं समझता और उसकी बरसों की श्रद्धा पल में नष्ट हो जाती है?
अस्तु साईं प्रसंग में स्वरूपानंद जी द्वारा उठाई गयी आपत्ति से सहमत हूँ।
१-७-२०१४
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कल और आज: घनाक्षरी
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि,
श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि,
राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि,
तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि,
ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.
*****
आज : संजीव 'सलिल'
संसद के मंच पर, लोक-मत तोड़े दम,
राजनीति सत्ता-नीति, दल-नीति कारा है ।
नेताओं को निजी हित, साध्य- देश साधन है,
मतदाता घुटालों में, घिर बेसहारा है ।
'सलिल' कसौटी पर, कंचन की लीक है कि,
अन्ना-रामदेव युति, उगा ध्रुवतारा है।
स्विस बैंक में जमा जो, धन आये भारत में ,
देर न करो भारत, माता ने पुकारा है।
******
घनाक्षरी: वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण-
हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण.
******
१-७-२०१२
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मुक्तिका:
ज़ख्म कुरेदेंगे....
*
ज़ख्म कुरेदोगे तो पीर सघन होगी.
शोले हैं तो उनके साथ अगन होगी..
*
छिपे हुए को बाहर लाकर क्या होगा?
रहा छिपा तो पीछे कहीं लगन होगी..
*
मत उधेड़-बुन को लादो, फुर्सत ओढ़ो.
होंगे बर्तन चार अगर खन-खन होगी..
*
फूलों के शूलों को हँसकर सहन करो.
वरना भ्रमरों के हाथों में गन होगी..
*
बीत गया जो रीत गया उसको भूलो.
कब्र न खोदो, कोई याद दफन होगी..
*
आज हमेशा कल को लेकर आता है.
स्वीकारो, वरना कल से अनबन होगी..
*
नेह नर्मदा 'सलिल' हमेशा बहने दो.
अगर रुकी तो मलिन और उन्मन होगी..
१-७-२०१०
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लघु कथा
विजय दिवस
*
करगिल विजय की वर्षगांठ को विजय दिवस के रूप में मनाये जाने की खबर पाकर एक मित्र बोले-
'क्या चोर या बदमाश को घर से निकाल बाहर करना विजय कहलाता है?'
''पड़ोसियों को अपने घर से निकल बाहर करने के लिए देश-हितों की उपेक्षा, सीमाओं की अनदेखी, राजनैतिक मतभेदों को राष्ट्रीयता पर वरीयता और पड़ोसियों की ज्यादतियों को सहन करने की बुरी आदत (कुटैव या लत) पर विजय पाने की वर्ष गांठ को विजय दिवस कहना ठीक ही तो है. '' मैंने कहा.
'इसमें गर्व करने जैसा क्या है? यह तो सैनिकों का फ़र्ज़ है, उन्हें इसकी तनखा मिलती है.' -मित्र बोले.
'''तनखा तो हर कर्मचारी को मिलती है लेकिन कितने हैं जो जान पर खेलकर भी फ़र्ज़ निभाते हैं. सैनिक सीमा से जान बचाकर भाग खड़े होते तो हम और आप कैसे बचते?''
'यह तो सेना में भरती होते समय उन्हें पता रहता है.'
पता तो नेताओं को भी रहता है कि उन्हें आम जनता-और देश के हित में काम करना है, वकील जानता है कि उसे मुवक्किल के हित को बचाना है, न्यायाधीश जनता है कि उसे निष्पक्ष रहना है, व्यापारी जनता है कि उसे शुद्ध माल कम से कम मुनाफे में बेचना है, अफसर जानता है कि उसे जनता कि सेवा करना है पर कोई करता है क्या? सेना ने अपने फ़र्ज़ को दिलो-जां से अंजाम दिया इसीलिये वे तारीफ और सलामी के हकदार हैं. विजय दिवस उनके बलिदानों की याद में हमारी श्रद्धांजलि है, इससे नयी पीढी को प्रेरणा मिलेगी.''
प्रगतिवादी मित्र भुनभुनाते हुए सर झुकाए आगे बढ़ गए..
जुलाई २९, २००९
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