दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
गुरुवार, 30 जून 2022
सॉनेट,भोजपुरी हाइकु,बुंदेली नवगीत,दोहा सलिला,
बुधवार, 29 जून 2022
गीत,दोहा,पद,छंद चौपाई, सुरेश वर्मा, गुरु गोबिंद सिंह
कृति चर्चा :
उपन्यास दो शब्दों के योग से बना है उप + न्यास = उपन्यास अर्थात समीप घटित घटनाओं का वर्णन जिसे पढ़कर ऐसा प्रतीत हो कि यह हमारी ही कहानी, हमारे ही शब्दों में लिखी गई है। 'नीले घोड़े का शहसवार' में सदियों पूर्व घटित घटनाओं को इस तरह शब्दित किया गया है मानो रचनाकार स्वयं साक्षी हो। उपन्यास विधा आधुनिक युग की देन है। हमारी अन्तः व बाह्य जगत की जितनी यथार्थ एवं सुन्दर अभिव्यक्ति उपन्यास में दिखाई पड़ती है उतनी किसी अन्य विधा में नहीं। 'नीले घोड़े का शहसवार' में युग विशेष के सामाजिक जीवन और जगत कीजीवन झाँकियाँ संजोई गयी हैं। विविध प्रसंगों की मार्मिक अभिव्यक्ति इतनी रसपूर्ण है कि पाठक पात्रों के साथ-साथ हर्ष या शोक की अनुभूति करता है। प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र' ठीक ही कहा है। उपन्यास 'नीले घोड़े का शहसवार' में तत्कालीन मानव समाज के संघर्षों का वृहद् शब्द-चित्र चरित्र–चित्रण के माध्यम से किया गया है।
कथावस्तु
कथा वस्तु उपन्यास की जीवन शक्ति होती है। 'नीले घोड़े का शहसवार' की कथावस्तु एक ऐतिहासिक चरित्र के जीवन से सम्बन्धित होते हुए भी मौलिक कल्पना से व्युत्पन्न वर्णनों से सुसज्जित है। काल्पनिक प्रसंग इतने स्वाभाविक एवं यथार्थ हैं कि पाठक को उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने में किंचितमात्र भी कठिनाई नहीं होती। उपन्यासकार ने वास्तव में घटित विश्वसनीय घटनाओं को ही स्थान दिया है। युद्ध में हताहत सैनिकों की चिकित्सा अथवा अंतिम संस्कार हेतु धन की व्यवस्था करने की दृष्टि से गुरु गोबिंद जी द्वारा तीरों के अग्र भाग को स्वर्ण मंडित करने का आदेश दिया जाना, ऐसा ही प्रसंग है जिसकी लेखक ने वर्तमान 'रेडक्रॉस' से तुलना की है। 'नीले घोड़े का शहसवार' में मुख्य कथा गुरु गोबिंद सिंह का व्यक्तित्व-कृतित्व है जिसके साथ अन्य गौण कथाएँ (गुरु तेगबहादुर द्वारा आत्माहुति, मुग़ल बादशाओं की क्रूरता, हिन्दू राजाओं का पारस्परिक द्वेष आदि) हैं जो मुख्य कथा को यथास्थान यथावश्यक गति देती हैं। ये गौण कथाएँ मुख्य कथा को दिशा, गति तथा विकास देने में सहायक हैं। इन उपकथाओं को मुख्या कथा के साथ इस तरह संगुफित किया गया है कि वे नीर-क्षीर की तरह एक हो सकीहैं। उपन्यासकार मुख्य और प्रासंगिक उपकथाओं को गूँथते समय कौतूहल और रोचकता बनाए रख सका है।
पात्र व चरित्र चित्रण
इस उपन्यास का मुख्य विषय गुरु गोबिन्द सिंह जी के अनुपम चरित्र, अद्वितीय पराक्रम, असाधारण आदर्शप्रियता तथा लोकोत्तर आचरण का चित्रण कर समाज को सदाचरण की प्रेरणा देना है। उपन्यासकार इस उद्देश्य में पूरी तरह सफल है। उपन्यास में प्रधान पात्र गुरु गोबिंद सिंह जी ही हैं जिनके जन्म से अवसान तक किये गए राष्ट्र भक्ति तथा शौर्यपरक कार्यों का पूरी प्रमाणिकता के साथ वर्णन कर उपन्यासकार न केवल अतीत में घटे प्रेरक प्रसंगों को पुनर्जीवित करता है अपितु उन्हें सम-सामयिक परिदृश्य में प्रासंगिक निरूपित करते हुए, उनका अनुकरण किये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करता है। नायक के जीवन में निरंतर कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, लगातार जान हथेली पर लेकर जूझना पड़ता है, कड़े संघर्ष के बाद मिली सफलता क्षणिक सिद्ध होती है और बार-बार वह छल का शिकार होता है तथापि एक बार भी हताश नहीं होता, नियति को दोष नहीं देता, ईश्वर या बादशाह के सामने गिड़गिड़ाता नहीं ,खुद कष्ट सहकर भी अपने आश्रितों और प्रजा के हित पल-पल प्राण समर्पित को तैयार रहता है। इससे वर्तमान नेताओं को सीख लेकर अपने आचरण का नियमन करना चाहिए। उपन्यास में माता जी, गुरु-पत्नियाँ, गुरु पुत्र, पंच प्यारे, पहाड़ी राजा, मुग़ल बादशाह और सिपहसालार आदि अनेक गौड़ पात्र हैं जो नायक के चतुर्दिक घटती घटनाओं के पूर्ण होने में सहायक होते हैं तथा नायक के दिव्यत्व को स्थापित करने में सहायक हैं। वे कथानक को गति देकर, वातावरण की गंभीरता कम कर, उपयुक्त वातावरण की सृष्टि करने के साथ-साथ अन्य पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं।
संवाद :
संवादों का प्रयोग कथानक को गति देने, नाटकीयता लाने, पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करने, वातावरण की सृष्टि करने आदि उद्देश्यों की पुयर्ती हेतु किया गया है। संवाद पत्रों के विचारों, मनोभावों तथा चिंतन की अभिव्यक्ति कर अन्य पात्रों तथा पाठकों को घटनाक्रम से जोड़ते हैं। कथोपकथन पात्रों के अनुकूल हैं। संवादों के माध्यम से उपन्यासकार अनुपस्थित होते हुए भी अपने चिन्तन को पाठकों के मानस में आरोपित कर सका है। पंज प्यारों की परीक्षा के समय, सेठ-पुत्र के हाथ से जल न पीने के प्रसंग में, माता, पत्नियों, पुत्रों साथियों तथा सेवकों की शंकाओं का समाधान करते समय गुरु जी द्वारा कहे गए संवाद पाठकों को दिशा दिखाते हैं। ये संवाद न तो नाटकीय हैं, न उनमें अतिशयोक्ति है, गुरु गंभीर चिंतन को सरस, सहज, सरल शब्दों और लोक में परिचित भाषा शैली में व्यक्त किया गया है। इससे पाठक के मस्तिष्क में बोझ नहीं होता और वह कथ्य को ह्रदयंगम कर लेता है।
वातावरण
वर्तमान संक्रमण काल में भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में मूल्यहीनता, स्वार्थलिप्सा, संकीर्णता तथा भोग-विलास का वातावरण है। इस काल में ऐसे महान व्यक्तित्वों की गाथाएँ सर्वाधिक प्रासंगिक हैं जिन्होंने 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देकर आत्म-त्याग और आत्म-बलिदान के उदाहरण बनकर मानवीय मूल्यों की दिव्य ज्योति को जलाए रख हो ताकि पाठक वर्ग प्रेरित होकर आदर्श पथ पर चल सके। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे ही हुतात्मा हैं जो बचपन में अपने पिता को आत्माहुति की प्रेरणा देते हैं तथा तत्पश्चात मिले गुरुतर उत्तरदायित्व को ग्रहण कर न केवल स्वयं को उसके उपयुक्त प्रमाणित करते हैं बल्कि शिव की तरह पहाड़ी राजाओं के विश्वासघात का गरल पीकर नीलकंठ की भाँति मुगलों से उन्हीं की रक्षा भी करते हैं। उपन्यासकार ने तत्कालिक परिस्थितियों का वर्णन पूरी प्रामाणिकता के साथ किया है। ऐतिहासिक जीवनचरित परक उपन्यास लिखते समय लेखक की कलम को दुधारी की धार पर चलन होता है। एक ओर महानायकत्व की स्थापना, दूसरी ओर तथ्यों और प्रमाणिकता की रक्षा, तीसरी ओर पठनीयता बनाए रखना और चौथी और सम-सामयिक परिस्थितियों और परिवेश के साथ घटनाक्रम और नायक की सुसंगति स्थापित करते हुए उन्हें प्रासंगिक सिद्ध करना। डॉ. सुरेश कुमार वर्मा इस सभी उद्देश्यों को साधने में सफल सिद्ध हुए हैं।
भाषा शैली :
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और शैली भावों की का अभिव्यक्ति का ढंग। भाषा के द्वारा उपन्यासकार अपनी मन की बात पाठक तक संप्रेषित करता है। अतः, भाषा का सरल-सहज-सुबोधहोना, शब्दों का सटीक होना तथा शैली का सरस होना आवश्यक है। डॉ. वर्मा स्वयं हिंदी के प्राध्यापक तथा भाषा वैज्ञानिक हैं। ऐसी स्थिति में बहुधा लेखक पांडित्य प्रदर्शन करने के फेर में पाठकों और कथा के पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पाते किन्तु डॉ. वर्मा ने कथावस्तु के अनुरूप पंजाबी मिश्रित हिंदी और पंजाबी काव्यांशों का यथास्थान प्रयोग कर भाषा को पात्रों, घटनाओं तथा परिवेश के अनुरूप बनाने के साथ सहज बोधगम्य भी रखा है। पात्रों के संवाद उनकी शिक्षा तथा वातावरण के साथ सुसंगत हैं। प्रसंगानुकूल भाषा का उदाहरण गुरु द्वारा औरंगजेब को लिखा गया पत्र है जिसमें अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रचुर प्रयोग है।
जीवन दर्शन व उद्देश्य :
किसी भी रचना को रचते समय रचनाकार के मन में कोई न कोई मान्यता, विचार या उद्देश्य होता है। उपन्यास जैसी गुरु गंभीर रचना निरुद्देश्य नहीं की जा सकती। ;नीले घोड़े का शहसवार' की रचना के मूल में निहित उद्देश्य का उल्लेख करते हुए डॉ. वर्मा 'अपनी बात' में गुरु नानक द्वारा समाज सुधर की चर्चा करते समय लिखते हैं '...पहले मनुष्य को ठीक किया जाए ,यदि मनुष्य विकृत रहा तो वह सबको विकृत कर देगा...मनुष्य को सत्य, न्याय, प्रेम करुणा, अहिंसा, समता, क्षमा, पवित्रता, निस्स्वार्थता, परोपकारिता, विनम्रता, जैसे गुणों को अपने व्यक्तित्व में अंगभूत करना चाहिए। फिर समाज से अन्धविश्वास, कुरीति, वर्णभेद, जातिभेद, असमानता आदि का उन्मूलन किया जाए। धर्म के क्षेत्र में सहिष्णुता, स्वतंत्रता, सरलता और मृदुलता के भावों को विकसित करने की जरूरत थी। (आज पहले की अपेक्षा और अधिक है-सं.)
गुरु गोबिंद सिंह जी के अवदान का संकेत करते हुए डॉ. वर्मा लिखते हैं - 'पिता को आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा देनेवाले बालक ने मात्र ९ वर्ष की आयु में गुरुगद्दी सम्हालने के तुरंत बाद ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया और वह लक्ष्य था धर्म की रक्षा। 'धर्मो रक्षति रक्षित:' के सूत्र को उन्होंने कसकर पकड़ा और संकल्प किया कि हर पुरुष को लौह पुरुष के रूप में ढाला जाए जो अपनी रक्षा भी कर सके और अपने धर्म की भी... शायद ही किसी कौन या मजहब के इतिहास में ऐसा कोइ महानायक पैदा हुआ हो जिसने हर शख्स को तराशने और संवारने में इतनी मेहनत की हो।'.... आदि गुरु नानकदेव जी ने जिस धर्म की नींव राखी, उस पर कलश चढ़ाने का काम दशमेश गुरु गोबिंदसिंह ने किया। वे बड़े विलक्षण मानव थे। वे कर्मवीर थे,धर्मवीर थे, परमवीर थे। उन्होंने जीवन के विविध आयामों को बहुत ऊँचाई पर ले जाकर स्थिर किया। एक हाथ में शास्त्र था तो उस शास्त्र की रक्षा के लिए दूसरे हाथ में शस्त्र था.... पहल संस्कार कराकर और अमृत चखाकर सिखों में यह विश्वास पैदा कर दिया कि वे अमृत की संतान हैं और मृत्यु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। इससे मूलमंत्र की 'निरभउ' भावना बलवती हुई। इसका यह परिणाम हुआ की सिखों ने मृत्यु का भी तिरस्कार किया और बलिदान का वैभव दिखाने के लिए आगे आए.... गुरु गोबिंद सिंह ने उनमें यह विश्वास भर दिया कि जंग संख्याबल से नहीं, मनोबल से जीती जाती है और यह विश्वास भी कि हर सिख एक लाख शत्रुओं से लड़ने की ताकत रखता है.... तीन बार ऐसे अवसर आए जब मुग़ल सिपहसालार उनकी तेजस्विता देखकर हतप्रभ हो गए, घोड़े से उत्तर पड़े, अपनी तलवार जमीन पर रख दी और रणक्षेत्र को छोड़कर निकल गए.... विश्व के धर्मशास्त्रों में शायद ही इस प्रकार की कोई घटना दर्ज हो कि कोई गुरु अपने ही चेलों को गुरु मानकर उनकी आज्ञा का पालन करे...' उपन्यास नायक के रूप में गुरु गोबिंद सिंह जी के चयन की उपयुक्तता असंदिग्ध है।
प्रासंगिकता
'नीले घोड़े का शहसवार' उपन्यास की प्रासंगिकता विविध प्रसंगों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहज ही देखी जा सकती है। भारत का जन मानस संविधान द्वारा समानता की गारंटी दिए जाने के बाद भी,जाति, धर्म पंथ, संप्रदाय, भाषा, भूषा, लिंग आदि के भेद-भाव से आज भी ग्रस्त है। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा खालसा धर्म की स्थापना कर मानव मात्र को समान मानने का आदर्श युग की आवश्यकता है। पक्षपात की भावना, निष्पक्ष और सर्वोत्तम के चयन में बाधक होती है, आरक्षण व्यवस्था, अयोग्य को अवसर बन गयी है। गुरु गोबिंद सिंह ने पंज प्यारे चुनने और अमृत छकने में श्रेष्ठता को ही चयन का मानक रखा। यहाँ तक कि गुरु गद्दी भी गुरु ने पुत्रों को नहीं, सर्वोत्तम पात्र को दी। आज देश नेताओं, नौकरशाहों, धनपतियों ही नहीं आम आदमी के भी भ्रष्टाचार से संत्रस्त है। गुरु गोबिंद सिंह ने मसन्दों के भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने में देर न की, साथ ही 'निरमला' के माध्यम से चारित्रिक शुचिता को प्रतिष्ठा दी। अपने और शत्रु दोनों के सैनिकों को पानी पिलाने के प्रसंग में गुरु नई मानव मात्र पीड़ा को समान मानकर राहत देने का सर्वोच्च मूल्य स्थापित किया। कश्मीर के आतंकवादियों द्वारा एक विमान में कुछ भारतीयों का अपहरण कर ले जाने के बदले में सरकार ने कठिनाई से पकड़े दुर्दांत आतंकवादियों को उनके ठिकाने पर पहुँचाया, उन्हें अब तक मारा नहीं जा सका और वे शत्रुदेश में षड्यंत्र करते हैं। यदि लोगों और नेताओं के मन में गुरु गोबिंद सिंह की तरह आत्मोत्सर्ग की भावना होती तो यह न होता। गुरु ने अपने चार पुत्रों को देश पर बलिदान होने पर भी उफ़ तक न की।
'नीले घोड़े का शहसवार' उपन्यास देश के हर नागरिक को न केवल पढ़ना अपितु आत्मसात करना चाहिए। गुरु गोबिंद सिंह के चिंतन, आचरण और आदर्शों को किंचित मात्र भी अपनाया जा सके तो पठान न केवल बेहतर मनुष्य अपितु बेहतर समाज बनाने में भी सहायक होगा। सर्वोपयोगी कृति के प्रणयन हेतु डॉ. सुरेश कुमार वर्मा साधुवाद के पात्र हैं।
मंगलवार, 28 जून 2022
तुलसी : रामबाण औषधि
दोहा, मुक्तिका, गीत, श्रृंगार गीत, कमल, अमलतास, लघुकथा, नेपाली, सुरेश वर्मा, गोबिंद सिंह
चीनी आक्रमण के समय अपने ओजपूर्ण गीत एवं कविताओं द्वारा जनांदोलन का शंख फूँकनेवाले तथा ''चौवालिस करोड़ को हिमालय ने पुकारा'' के रचयिता आधुनिक काल के जनप्रिय हिंदी कवि और गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली का जन्म ११ अगस्त, १९११ ई. को बिहार राज्य के पश्चिम चम्पारण जिले के कारी दरबार में हुआ था। एक फौजी पिता की संतान के रूप में जगह-जगह भटकते रहने के कारण आपकी स्कूली शिक्षा बहुत कम हो पायी थी। आप मात्र प्रवेशिका तक ही पढ़ पाए थे, परन्तु आपने आम लोगों की भावनाओं को खूब पढ़ा और उनकी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को आवाज दी।
साधारण वेश-भूषा, पतला चश्मा, थोड़े घुँघराले बाल, रंग साँवला और कोई गंभीर्य नहीं। विनोदपूर्ण और सरल व्यक्तित्व के स्वामी गोपाल सिंह नेपाली लहरों के विपरीत चलकर सफलता के झण्डे गाड़ने वाले अपराजेय योद्धा थे। आप साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में पारंगत थे। आपकी रचना पाठ का एक अलग ही अनूठा अंदाज होता था। यही वजह थी कि आप जिस भी आयोजन में जाते, उसके प्राण हो जाते थे। आपके द्वारा गाये गीत तुरंत लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाते थे और लोग उन्हें बरबस गुनगुनाने लगते थे-
'जिस पथ से शहीद जाते है, वही डगरिया रंग दे रे/ अजर अमर प्राचीन देश की, नई उमरिया रंग दे रे। / मौसम है रंगरेज गुलाबी, गांव-नगरिया रंग दे रे। / तीस करोड़ बसे धरती की, हरी चदरिया रंग दे रे॥'
१९६५ ई. में पाकिस्तानी फौज की अचानक गोली-बारी में हमारे देश के शांतिप्रिय मेजर बुधवार और उनके साथी शहीद हो गए तो केंद्र में बैठे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को संबोधित कर कविवर नेपाली ने लिखा था- 'ओ राही! दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से, चरखा चलता हाथों से, शासन चलता तलवार से।' कविवर नेपाली का नाम सिर्फ हिन्दी साहित्य में ही नहीं बल्कि सिने जगत के इतिहास में भी अविस्मरणीय है। आप १९४४ई. में बम्बई की फिल्म कम्पनी फिल्मिस्तान में गीतकार के रूप में पहुँचे और सर्वप्रथम 'मजदूर' जैसी ऐतिहासिक फिल्म के गीत लिखे, जिसके कथाकार स्वयं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द थे और संवाद लेखन किया था उपेन्द्र नाथ 'अश्क' ने। गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपाली जी को सन् १९४५ का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला। भारत पर चीनी हमले से पूर्व तक आप बम्बई में रहे और करीब चार दर्जन से भी अधिक फिल्मों में एक से एक लोकप्रिय गीत लिखे, फिल्म तुलसीदास का वह गीत आज भी हमारे लिए उस महाकवि का एक उद्बोधन-सा ही लगता है- 'सच मानो तुलसी न होते, तो हिन्दी कहीं पड़ी होती, उसके माथे पर रामायण की बिन्दी नहीं जड़ी होती।'
आपने खुद की एक फिल्म-कम्पनी 'हिमालय-फिल्मस' के नाम से बनाई थी, जिसके तहत 'नजराना' और 'खुशबू' जैसी फिल्में बनी थीं। फिल्म में लिखे इनके गीत, चली आना हमारे अँगना, तुम न कभी आओगे पिया, दिल लेके तुम्हीं जीते दिल देके हमी हारे, दूर पपीहा बोल, ओ नाग कहीं जा बसियो रे मेरे पिया को न डसियो रे, इक रात को पकड़े गये दोनों जंजीर में जकड़े गये दोनों, रोटी न किसी को मोतियों का ढेर भगवान तेरे राज में अंधेर है अंधेर तथा प्यासी ही रह गई पिया मिलन को अँखियाँ राम जी कैसे अनेक गीत इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी 'रीमिक्स' के जमाने में कभी-कभार सुनने को मिल जाते है तो बरबस नेपाली जी की याद दिलो दिमाग को कचोट जाती है। फिल्म नागपंचमी का वह गीत जो आज भी लोगों के ओठों पर बसा है- 'आरती करो हरिहर की, करो नटवर की, भोले शंकर की, आरती करो नटवर की..'
देश पर चीनी आक्रमण के दिनों में नेपाली जी लगातार समूचे देश का साहित्यिक दौरा करते हुए, आमजन को चीनी हमले के विरुद्ध जगा रहे थे- 'युद्ध में पछाड़ दो दुष्ट लाल चीन को, मारकर खदेड़ दो तोप से कमीन को, मुक्त करो साथियों हिन्द की जमीन को, देश के शरीर में नवीन खून डाल दो।'और इसी प्रकार लोगों को जगाते-जगाते अचानक १७ अप्रैल, १९६३ को दिन के करीब ११ बजे जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ कर लौटते समय भागलपुर रेलवे जंक्शन के प्लेटफार्म नं. २ पर सदा के लिए सो गये। उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ स्थानीय मारवाड़ी पाठशाला में करीब बीस घंटे तक रखा गया, वहीं से इनकी ऐतिहासिक शवयात्रा निकली, जिसमें जनसैलाब उमड़ पड़ा था। भागलपुर के ही बरारी घाट पर उन्हें पाँच साहित्यकारों ने संयुक्त रूप से मुखाग्नि दी और तब उनकी चिता जलाई गई। नेपाली के गीतों के साथ जनता की आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ गुथीं हुई थीं। तभी तो नेपाली जी ने साहित्य में उभरती हुई राजनीति और चापलूसी को देखकर बहुत दु:ख प्रकट करते हुए लिखा था- 'तुझ सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता। ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता। तू दलबंदी पर मरे, यहाँ लिखने में है तल्लीन कलम, मेरा धन है स्वाधीन कलम।'
हिन्दी साहित्य जगत में गोपाल सिंह नेपाली के योगदान का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनकी मौत के बाद उस समय की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने इनके जीवन और कृतित्व पर विशेषांकों की झड़ी-सी लगा दी थी। नेपाली जी के ऐसे अनेक साहित्यिक गीत है जो आज भी सुनने वालों के मन प्राण को अभिभूत कर देते है, खासकर- नौ लाख सितारों ने लूटा, दो तुम्हारे नयन दो हमारे नयन, तथा तन का दिया रूप की बाती, दीपक जलता रहा रातभर आदि गीत काफी अनूठे है।
आज हम उस महान जनप्रिय कवि गीतकार को याद करे न करे पर उनकी कृतियाँ- उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन, हिमालय ने पुकारा, पीपल का पेड़, कल्पना, नीलिमा और तूफानों को आवाज दो जैसी कालजयी रचनाओं के माध्यम से साहित्य इतिहास में सदा-सदा अमर रहेगे। अंत में उन्हीं की पंक्तियों के साथ- 'बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ, दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ।'