त्रिपदिक जनक छंद:
चेतनता ही काव्य है
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है
परिवर्तन सम्भाव्य है
आदि-अंत 'सत' का नहीं
'शिव' न मिले बाहर 'सलिल'
'सुंदर' सब कुछ है यहीं
शब्दाक्षर में गुप्त जो
भाव-बिम्ब-रस चित्र है
चित्रगुप्त है सत्य वो
कंकर में शंकर दिखे
देख सके तो देख तू
बिन देखे नाटक लिखे
देव कलम के! पूजते
शब्द सिपाही सब तुम्हें
तभी सृजन-पथ सूझते
श्वास समझिए भाव को
रचना यदि बोझिल लगे
सहन न भावाभाव को
सृजन कर्म ही धर्म है
दिल को दिल से जोड़ता
यही धर्म का मर्म है
शब्द-सेतु की सर्जना
मानवता की वेदना
परम पिता की अर्चना
शब्द दूत है समय का
गुम हो गर संवेदना
समझ समय है प्रलय का
पंछी जब कलरव करें
अलस सुबह ऐसा लगे
मंत्र-ऋचा ऋषिवर पढ़ें
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Santosh Kumar
जवाब देंहटाएंsalil ji
tripadik chhand kesundar prayog par badhai
santosh khare