विमर्श:
उच्चारण-त्रुटि दंडनीय क्यों???
संजीव
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भारत में विविध भाषा कुल के लोग हैं. वे सब अपनी मूलभाषा का उच्चारण करते हैं. हम 'बीजिंग' को 'पीकिंग' कहते आये हैं. हमारे लिए 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' कहना, 'मास्टर साहब' को 'मास्साब' कहना सही है.
पिछले दिनों वाचिका को 'Xi' को इलेवन पढ़ने पर नौकरी से अलग कर दिया गया. उन दिनों चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत में थे, उनके नाम का उच्चारण गलत हो गया तो अधिक से अधिक समाचार लेखक और वाचक को स्पष्टीकरण पत्र देकर भविष्य में सतर्क रहने के लिए चेतावनी दी जा सकती थी.
यहाँ समाचार वाचक का दोष नहीं है. उसने कागज पर जो देखा वह पढ़ा.
क्या समाचार लिखनेवाले को चीनी लिपि में 'Xi 'के स्थान पर देवनागरी में 'शी' नहीं लिखना था? यदि इस तरह लिखा होता तो त्रुटि नहीं होती।
यह एक सामान्य मानवी त्रुटि है जिसे चर्चा कर भविष्य में सुधारा जा सकता है. यदि दंड देना जरूरी हो तो समाचार लेखक को दिया जाए. हमारी नौकरशाही सबसे कमजोर कड़ी पर प्रहार करती है. प्रायः, समाचार लेखक स्थाई और वाचक अस्थायी होते हैं.
राजनय की मर्यादा
विदेशियों को सर-आँखों पर बैठने की हमारी लत अब भी सुधरी नहीं है.
पिछले दिनों चीन की पहली महिला ने पूर्वोत्तर की एक छात्रा से कहा 'वह चीनी है'. गनीमत है कि छत्रा सजग थी. उसने उत्तर दिया 'नहीं, मैं भारतीय हूँ'. यदि घबड़ाहट में उसने 'हाँ' कह दिया होता तो क्या होता? चीनी नेता और हमारी प्रेस तूफ़ान खड़ा कर देते।
विस्मय कि हमारी सरकार ने इस पर आपत्ति तक नहीं की. भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी राष्ट्रीय गौरवभाव से दूर हैं, पूर्वोत्तर भरोसाः है तभी तो इस दौरे में विवादस्पद अंचल के कर्मचारियों प्रांतीय सरकार, सांसदों विधायकों यहाँ तक कि एकमात्र केंद्रीय मंत्री तक को दूर रखा गया. यदि हम इन सबको चीनी राष्ट्राध्यक्ष के सामने लाते और वे एक स्वर से खुद को भारतीय बताते तो चीन का दावा कमजोर होता।
अविश्वास क्यों?:
कल्पना कीजिए की चीनी राष्ट्रपरि को गुजरात के स्थान पर पूर्वोत्तर राज्यों में ले जाया गया होता और वहां की लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी गयी सरकारें, जन प्रतिनिधि और जातीय मुखिय गण चीनी राष्ट्रपति को वही उत्तर देते जो दिल्ली की छात्रा ने दिया था तो क्या भारत का गौरव नहीं बढ़ता। निस्संदेह इसके लिए साहस और विश्वास चाहिए, कमी कहाँ है? मोदी जी के पास इन दोनों तत्वों की कमी नहीं है, कमी नौकरशाही में है जो शंका और अविश्वास अपनी सजगता मानती है और कमजोर को प्रताड़ित कर गौरवान्वित होती है.
इन बिन्दुओं पर सोचना और अपनी राय मंत्रालयों और नेताओं की साइट से उन तकक्या पहुँचाना क्या हम नागरिकों दायित्व नहीं है ?
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
Indira Mital ibmital@gmail.com
जवाब देंहटाएंXi को ग्यारह पढ़ने की भूल होती ही नहीं होती यदि चीनी दूतावास को फ़ोन करके
शब्द के बिलकुल सही उच्चारण की पुष्टि कर ली गयी होती.
आकाशवाणी/दूरदर्शन पर समाचार पढ़ने वाले और पत्रकार भी पहले ऐसा ही किया
करते थे.
इंदिरा
इंदिरा जी! क्या यह भूल इतनी गंभीर है कि इसके लिए उद्घोषिका की सेवा समाप्त कर दी जाए? क्या उसका स्पष्टीकरण प्राप्त कर भविष्य में भूल न दुहराने की चेतावनी देना ठीक न होता? प्रश्न भूल और दंड के अनुपात का है. सामान्यतः किसी अपराध और भूल में अंतर किया जाता है. विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही के प्रावधानों क पालन किये बिना धनद देना कितना न्यायोचित है?
जवाब देंहटाएंGhanshyam Gupta gcgupta56@yahoo.com
जवाब देंहटाएंमैं संजीव जी के विचारों से भी सहमत हूं और इंदिरा जी के विचारों से भी।
क्या समाचार लिखनेवाले को चीनी लिपि में 'Xi 'के स्थान पर देवनागरी में 'शी' नहीं लिखना था? यदि इस तरह लिखा होता तो त्रुटि नहीं होती।
यह एक सामान्य मानवी त्रुटि है।
विदेशियों को सर-आँखों पर बैठने की हमारी लत अब भी सुधरी नहीं है.
कल्पना कीजिए की चीनी राष्ट्रपति को गुजरात के स्थान पर पूर्वोत्तर राज्यों में ले जाया गया होता
श्री नरेन्द्र मोदी से फिलहाल यह अपेक्षा करना कठिन है कि वे अपने बौनेपन से शीघ्र छुटकारा पाकर स्वयं को राष्ट्रीय स्तर का नेता सिद्ध कर पायेंगे।
- घनश्याम
जवाब देंहटाएंIndira Mital ibmital@gmail.com
कदापि नहीं, उद्घोषिका की सेवा समाप्त करना वैसे ही होगा जैसे
chop off the nose to spite the face.
सहानुभूति उद्घोषिका के साथ होनी चाहिए जिसे कदाचित बताया भी न गया
हो कि उच्चारण के विषय में हर शंका का समाधान कर लेने से उद्घोषणा अथवा
समाचार पाठ विश्व स्तर का हो सकता है.
हमारे समय में बोधवाक्य: बहुजन हिताय, भोजन सुखाय कंठस्थ रहता था.
याद कीजिये Melville de Mello, Roshan Menon, Renee Simon, उर्मिला
मिश्र, देवकी नंदन पांडे, अशोक बाजपेई और उन जैसे मँजे हुए लोग जिनका
उच्चारण सुन कर भूल सुधार किया जाता था.
आवाज़ों की आज assembly line production में और क्या अपेक्षा की जाये?
इंदिरा
नरेंद्र दत्त ने भी कभी कल्पना नहीं की थी कि उसे धर्म संसद में सनातन धर्म की प्रस्तुति का दायित्व निभाना होगा. अवसर मिलने पर भी २ बार उसने अपने स्थान पर अन्य वक्ता को अवसर दे दिया किन्तु अंतिम अवसर पर गुरु को स्मरण कर वह उठ खड़ा हुआ और इतिहास बदल दिया।
जवाब देंहटाएंनरेंद्र मोदी ने भी चाय बेचते समय कल्पना तक न की थी कि कभी व्हाइट हाउस उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाएगा। इन्हें भी कुछ अवसर गंवाने दीजिए.... समय ने इन्हें जहाँ पहुचाया है वहां इनसे कुछ सकारात्मक करा ही लेगा। आशा पर आकाश टंगा है.…
शिकागो में नरेंद्र को खुद फैसला लेना था, दिल्ली में अकेला नरेंद्र फैसला नहीं ले सकता, उसे नौकरशाहों की उस जमात से फैसले और काम करवाना है जो अपनी मक्कारी, धूर्तता और अहम के लिए सारी दुनिया में ख्यात (वि / कु अपनी रूचि नुसार जोड़ा जा सकता है) है. इसलिए विसंगतियां स्वाभाविक है. चर्चा का उद्देश्य विविध आयामों को सामने लेकर उन तक पहुँचाना ही है.