दोहा सलिला :
संजीव
*
नीर-क्षीर मिल एक हैं, तुझको क्यों तकलीफ ?
एक हुए इस बात की, क्यों न करें तारीफ??
*
आदम-शिशु इंसान हो, कुछ ऐसी दें सीख
फख्र करे फिरदौस पर, 'सलिल' सदा तारीख
*
है बुलंद यह फैसला, ऊँचा करता माथ
जो खुद से करता वफ़ा, खुदा उसी के साथ
*
मैं हिन्दू तू मुसलमां, दोनों हैं इंसान
क्यों लड़ते? लड़ता नहीं, जब ईसा भगवान्
*
मेरी-तेरी भूख में, बता कहाँ है भेद?
मेहनत करते एक सी, बहा एक सा स्वेद
*
पंडित मुल्ला पादरी, नेता चूसें खून
मजहब-धर्म अफीम दे, चुप अँधा कानून
*
'सलिल' तभी सागर बने, तोड़े जब तटबंध
हैं रस्मों की कैद में, आँखें रहते अंध
*
जो हम साया हो सके, थाम उसी का हाथ
अन्धकार में अकेले, छोड़ न दे जो साथ
*
जगत भगत को पूजता, देखे जब करतूत
पूज पन्हैयों से उसे, बन जाता यमदूत
*
थूकें जो रवि-चन्द्र पर, गिरे उन्हीं पर थूक
हाथी चलता चाल निज, थकते कुत्ते भूंक
*
'सलिल' कभी भी किसी से, जा मत इतनी दूर
निकट न आ पाओ कभी, दूरी हो नासूर
*
पूछ उसी से लिख रहा, है जो अपनी बात
व्यर्थ न कुछ अनुमान कर, कर सच पर आघात
*
तम-उजास का मेल ही, है साधो संसार
लगे प्रशंसा माखनी, निंदा क्यों अंगार?
*
साधु-असाधु न किसी के, करें प्रीत-छल मौन
आँख मूँद मत जान ले, पहले कैसा-कौन?
*
हिमालयी अपराध पर, दया लगे पाखंड
दानव पर मत दया कर, दे कठोरतम दंड
*
एक द्विपदी:
कासिद न ख़त की , भेजनेवाले की फ़िक्र कर
औरों की नहीं अपनी, खताओं का ज़िक्र कर
*
salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in
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नीर-क्षीर मिल एक हैं, तुझको क्यों तकलीफ ?
एक हुए इस बात की, क्यों न करें तारीफ??
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आदम-शिशु इंसान हो, कुछ ऐसी दें सीख
फख्र करे फिरदौस पर, 'सलिल' सदा तारीख
*
है बुलंद यह फैसला, ऊँचा करता माथ
जो खुद से करता वफ़ा, खुदा उसी के साथ
*
मैं हिन्दू तू मुसलमां, दोनों हैं इंसान
क्यों लड़ते? लड़ता नहीं, जब ईसा भगवान्
*
मेरी-तेरी भूख में, बता कहाँ है भेद?
मेहनत करते एक सी, बहा एक सा स्वेद
*
पंडित मुल्ला पादरी, नेता चूसें खून
मजहब-धर्म अफीम दे, चुप अँधा कानून
*
'सलिल' तभी सागर बने, तोड़े जब तटबंध
हैं रस्मों की कैद में, आँखें रहते अंध
*
जो हम साया हो सके, थाम उसी का हाथ
अन्धकार में अकेले, छोड़ न दे जो साथ
*
जगत भगत को पूजता, देखे जब करतूत
पूज पन्हैयों से उसे, बन जाता यमदूत
*
थूकें जो रवि-चन्द्र पर, गिरे उन्हीं पर थूक
हाथी चलता चाल निज, थकते कुत्ते भूंक
*
'सलिल' कभी भी किसी से, जा मत इतनी दूर
निकट न आ पाओ कभी, दूरी हो नासूर
*
पूछ उसी से लिख रहा, है जो अपनी बात
व्यर्थ न कुछ अनुमान कर, कर सच पर आघात
*
तम-उजास का मेल ही, है साधो संसार
लगे प्रशंसा माखनी, निंदा क्यों अंगार?
*
साधु-असाधु न किसी के, करें प्रीत-छल मौन
आँख मूँद मत जान ले, पहले कैसा-कौन?
*
हिमालयी अपराध पर, दया लगे पाखंड
दानव पर मत दया कर, दे कठोरतम दंड
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एक द्विपदी:
कासिद न ख़त की , भेजनेवाले की फ़िक्र कर
औरों की नहीं अपनी, खताओं का ज़िक्र कर
*
salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in
Kusum Vir via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्य जी,
बहुत सुन्दर, अनुकरणीय दोहे l
सराहना सहित,
सादर,
कुसुम वीर
achal verma
जवाब देंहटाएंतम-उजास का मेल ही, है साधो संसार
लगे प्रशंसा माखनी, निंदा क्यों अंगार?
इन विचारों की उच्चता इतनी
दंग हम रह गए जिनको पढकर
अन्धकार प्रकाश दोनों से
ही निखरे प्रकार ये नश्वर ।
अन्धकार निज का गुणगान
और प्रकाशित सब विद्वान ॥.....अचल.....
ks poet
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलिल जी,
दोहे अच्छे लगे। दाद कुबूलें।
सादर
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’
Amitabh Tripathi via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलिल जी,
अच्छे दोहे हैं।
मेरी-तेरी भूख में, बता कहाँ है भेद
मेहनत करते एक सी, बहा एक सा स्वेद
ये अच्छा लगा
बधाई!
सादर
अमित
एक निवेदन है कि यदि एक बार में ६-७ दोहे भेजें तो रस लेने मे अधिक आनन्द आयेगा। बहुत सारे दोहे हो जाने पर कुछ बिना पढ़े हुये रह जाते है जिससे रचनाकर्म मे पूरा न्याय नहीं हो पाता।
--
अमिताभ त्रिपाठी
रचनाधर्मिता
neerja dewedy neerjadewedy@gmail.com via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआ. सलिल जी.
सुंदर दोहों के लिये बधाई.
नीरजा .द्विवेदी
Mahipal Tomar via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएं"सलिल" जी- आपकी ये दोहावली जीवन के अनेक पहलुओं को समाहित कर, कई नीति-परक दिशा-निर्देषों को समेंटे, मन की पूरी शुचिता के साथ , एक सुवासित मोतियों की माला के रूप में है,' सिद्ध -कवि 'संजीव जी, को बधाई और साधुवाद ,
सादर ,
महिपाल
Santosh Bhauwala via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय संजीव जी ,
दोहे बहुत अच्छे लगे ,साधुवाद !
संतोष भाऊवाला