मुक्तिका -
संजीव
कलियुग की पहचान, स्वयंभू खुद अपनी जय-जय गाएँगे
नेह नर्मदा नहा न पत्थर कमल बने, मिट सिकता होता
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot. in
संजीव
कलियुग की पहचान, स्वयंभू खुद अपनी जय-जय गाएँगे
चाटुकार-फौजों से जय-जयकार स्वयं की करवाएँगे
आम आदमी सत्य जानता जिन्हें न जन-हित की है चिंता
वे मक्कार सत्य की सीता को जंगल में भिजवाएँगे
समय नहीं पर सन्चालक बनने का ठेका लेते हैं जो
वे शब्दों के बाण चला, सीमा पर सैनिक कटवाएँगे
निज कर्त्तव्य-बोध से वंचित, हुए सियासत में है मंचित
वहम अहम् का पाले बैठे, गलत अन्य को बतलाएँगे
'सलिल' समय की नदी न ठहरे, बहती-बढ़ती जाती पल-पल
ज्यों की त्यों चादर हो जिनकी पार धार के वे जाएँगे
कुसुम वीर ही वरे, कायरों के कर में पत्थर मिलते हैं
कोयल मौन रहेगी, जब कागा कर्कश स्वर गुंजाएँगे
नेह नर्मदा नहा न पत्थर कमल बने, मिट सिकता होता
बरस थकें घन श्याम, मलिनता किन्तु न मन की धो पाएँगे
पावस में मर्यादा तोड़े जलधारा तो निकट न जाओ
साथ समय के मिटे मलिनता, निर्मल मन-तट मुस्काएँगे
सृजन यज्ञ में समिधा बन सब विद्वेषों को जलना होगा
छंद देवता तभी कलम से उतर ब्रम्ह की जय गाएँगे
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.
Mukesh Srivastava
जवाब देंहटाएंअजी हुजूर अपने पर इतनी अच्छी कविता न लिखा कीजिए
कभी हमें भी कुछ लिखने का मौक़ा ज़रा दीजिए
आपका हुनर है काबिले तारीफ़ , बात मेरी मान लीजिए
अपनी यह कविता मढवा कर, घर में टांग लीजिये
सादर,
मुकेश
Dr.M.C. Gupta via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंसलिल जी,
कवित तो सुंदर है ही, एक पद ने अतिशय मन मोह लिया--
कुसुम वीर ही वरे, कायरों के कर में पत्थर मिलते हैं
कोयल मौन रहेगी, जब कागा कर्कश स्वर गुंजाएँगे
***
एक पुराना कथन याद आ गया--
कागा का सौं लेत है, कोयल का को देत
मीठी बोली बोल के मन सब का हर लेत.
--ख़लिश
sn Sharma via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंधन्य संजीव जी ,
आपने तो सत्य का पिटारा खोल दिया और आज के चाटुकार चमचों को परिभाषित कर ही दिया। अपने पास भी इस विषय पर एक रचना कई दिनों से पडी है असमंजस था कि प्रकाशित करने पर घनश्याम जी की चाबुक चल सकती है। पर अब हिम्मत बंधी है। यह एक आईना है जिसे मूर्ख व्यक्ति उल्टी तरफ से देखता है इसका प्रमाण भी लगे हाथ मिल गया।
आप दोनो को इन रचनाओं के लिए अशेष साधुवाद।
सादर
कमल
आदरणीय आचार्य जी,
अति सुंदर। हर एक अश आर सुंदर बिम्ब लिये सत्य कथन कहता है। आपकी त्वरित सृजन प्रतिभा श्लाघ्य है। बधाई हो
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
Web:http://bikhreswar.blogspot.com/
Dr.M.C. Gupta
जवाब देंहटाएंमुक्तिका में "हर एक अश आर"?
--ख़लिश
Shriprakash Shukla via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय शीर्षक पर ध्यान नहीं गया। ग़ज़ल जैसी ही लगी।
अनजाने में भूल होगई जो भी थी रचना सुंदर थी
हर चमचे को सबक सिखाती ज्ञान समेटे रुचिकर थी
श्रीप्रकाश शुक्ल
Dr.M.C. Gupta via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंश्रीप्रकाश जी,
मैं आपसे सहमत हूँ. मैं इस बात से असहमत हूँ कि ग़ज़ल रूप में लिखी रचना को मुक्तिका मात्र इसलिए कहा जाए कि उसमें हिंदी है, उर्दू नहीं. ग़ज़ल विधा में अनेक भारतीय भाषाओं में लिखा गया है. हर एक भाषा में नया नाम देने की ज़रूरत नहीं है. यदि हम उर्दू से इतना परहेज़ करेंगे तो हिंदी से अन्य भाषी प्रेम क्यों करेंगे?
अश’आर शेर का बहुवचन है, जैसे अल्फ़ाज़ लफ़्ज़ का.
--ख़लिश
माननीय खलिश जी,
जवाब देंहटाएं''ग़ज़ल रूप में लिखी रचना को मुक्तिका मात्र इसलिए कहा जाए कि उसमें हिंदी है, उर्दू नहीं.''
सहमत हूँ. हिंदी-उर्दू की शब्द सम्पदा सांझी है. संस्कृत और अपभ्रंश क्रमशः विद्वज्जनों और सामान्यजनों द्वारा व्यवहृत होने के बाद मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा लाये गए अरबी-फारसी के लफ़्ज़ों के गले लगीं. फलतः छावनियों (लाव-लश्करों) में विकसित हुई भाषा 'लश्करी' कही गयी. मुस्लिम शासक होने के कारण विदेशी विद्वानों को तरजीह मिली और तक्ती'अ (तख्ती) को अपनाया गया. कालांतर में यह उर्दू के रूप में विकसित हुई. संस्कृत बहुल शब्दों के भाषा रूप को हिंदी तथा अरबी-फारसी शब्द बहुल भाषा रूप को उर्दू कहा गया. इनमें कोई द्वेष या झगडा नहीं है. आम आदमी को इस सबसे कुछ लेना-देना नहीं है. बिहार का मुस्लिम भोजपुरी बोलता है तो सीमाप्रांत ही नहीं सभी जगह हिंदी उर्दू का व्यवहार यथावसर कर लेते हैं.
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
सलिल संस्कृत सान दे, पूडी बने कमाल
''ग़ज़ल विधा में अनेक भारतीय भाषाओं में लिखा गया है. हर एक भाषा में नया नाम देने की ज़रूरत नहीं है.''
ग़ज़ल विधा में भारतीय ही नहीं अन्य अभारतीय भाषाओँ (अंगरेजी आदि) में भी लिखा गया है, उन्हें ग़ज़ल ही कहा जाता है. उर्दू से इतर भाषाओँ में ग़ज़ल उस भाषा के व्याकरणिक नियमों के अनुसार लिखी जाती है. उसमें न तो बहर होती है, न ही तकती'अ के नियमों का पालन। उन्हें खारिज भी नहीं किया जाता। हिंदी -उर्दू की सांझी विरासत के कारण हिंदी में ग़ज़ल के दो रूप हैं (१) बहरों के अनुसार तथा तकतीअ के नियमानुरूप तथा (२) हिंदी छंदों के अनुसार तथा मात्रा गणना के नियमों के अनुसार। अपवाद स्वरुप कुछ रचनाएँ दोनों मानकों पर खरी भी हो सकती हैं. उर्दू के रचनाकार हिंदी की दूसरी प्रकार की ग़ज़लों को ग़ज़ल ही नहीं मानते चूंकि उनमें बह'र और तकती'अ का पालन नहीं है जबकि अन्य भाषाओँ की ग़ज़लों को काफ़िया-रदीफ़ मात्र होने से ग़ज़ल मान लिया जाता है. इस विवाद से दूर रहने तथा हिंदी में एक साहित्यिक विधा के विकास की दृष्टि से हिंदी की दूसरी तरह की रचनाओं को कुछ रचनाकारों ने गीतिका कहा किन्तु हिंदी पिंगल में 'गीतिका' नाम से एक स्वतंत्र छंद है. कुछ अन्य नाम भी दिए गए. मुझे 'मुक्तिका' इसलिए उपयुक्त लगा कि ऐसी रचनाओं की हर द्विपदी अन्यों से मुक्त या स्वतंत्र होती है. मेरा यह निवेदन एक विद्यार्थी के नाते है. विद्वज्जन भिन्न मत रख सकते हैं.
''यदि हम उर्दू से इतना परहेज़ करेंगे तो हिंदी से अन्य भाषी प्रेम क्यों करेंगे?''
पूरी तरह सहमत हूँ. परहेज़ तो संसार की भी भाषा से नहीं किया जा सकता, हर भाषा माँ शारदा का एक रूप है.
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट।
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट।।
हिंदी उर्दू संस्कृत, प्रेम सहित नीर बाँच।
भाषा-बोली अन्य हैं, स्नेहिल बहिनें साँच।।
हिंदी मैया, मौसियाँ भाषा-बोली अन्य।
मात्र-भक्ति में मन रमा, मौसी होगी धन्य।।
मौसी-चाची ले नहीं सकतीं, माँ का स्थान।
सर-आँखों पर बिठा पर, 'सलिल' न मैया मान।।