शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

muktika: maara -sanjiv

मुक्तिका:  
मारा 
संजीव 
* 
हँसकर गले लगाकर, अपना बना के मारा 
सरकार निज बनाने, खाना खिला के मारा।१  

सरहद की फ़िक्र मत कर, दुश्मन से भी न खतरा 
ऐसी मुई सियासत, लड़वा-भिड़ा  के मारा।२

बहली रहे तबीयत इतना है उनका मकसद
दिलकश कमल बनाने, कीचड सना के मारा।३

सीरत खरीद पाई सूरत न जब हसीं तो,
पर्दा किया, पलट कर पर्दा गिरा के मारा।४

साली की की हमाली, बेगम से गम मिले हैं,
इसने हँसा के मारा, उसने रुला के मारा।५

घर-घुस रहा है कोई, सर कतरता है कोई,
सरकार मौन देखे, हमको हमीं ने मारा।६

माटी से मिली माटी आश्रम में, सडक पर भी
पुचकार इसने मारा, दुत्कार उसने मारा।७  
*  
Sanjiv verma 'Salil'  
salil.sanjiv@gmail.com 
http://divyanarmada.blogspot.in

6 टिप्‍पणियां:

  1. Ram Gautam

    आ. आचार्य संजीव सलिल जी,

    आपने 'मुक्तिका' के आधार पर एक बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी |
    निम्न पंक्तियाँ मन भायीं -
    साली की की हमाली, बेगम से गम मिले हैं,
    इसने हँसा के मारा, उसने रुला के मारा।५
    माटी से मिली माटी आश्रम में, सडक पर भी
    पुचकार इसने मारा, दुत्कार उसने मारा।७
    आपको हार्दिक बधाई और साधुवाद !!!
    सादर- गौतम

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  2. sn Sharma via yahoogroups.com

    आ० आचार्य जी ,
    प्रेरणादायक संवाद कथा के लिए साधुवाद !
    आपकी कल्पना शक्ति को नमन
    सादर
    कमल

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  3. Amitabh Tripathi via yahoogroups.com

    आदरणीय आचार्य जी,
    बोध कथा के लिये आभार!
    भूँकने वाले कुत्तों की नस्ल पुरा्नी और लुप्तप्राय हो गई है अब काटने वाले पाये जाते हैं। :)
    उनसे बचने का उपचार ज़रूर बताइयेगा और काट लेने पर संक्रमण रोकने वाली वैक्सीन का भी पता दीजियेगा।
    शुभकामनाओं सहित
    सादर
    अमिताभ त्रिपाठी

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  4. Ghanshyam Gupta

    मित्रो,

    श्री संजीव सलिल जी ने "अनदेखी" शीर्षक से जो बोध कथा भेजी है उसका सार यह है कि जैसे हाथी अपनी विशालता के साथ अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता है चाहे रास्ते में दुष्ट स्वभाव के कुत्ते उसे विचलित करने के उद्देश्य से कितना ही क्यों न भौंकते रहें, वैसे ही मनुष्य को भी अपने ध्येय की ओर बढ़ना उचित है न कि रास्ते में रोड़ों और रोड़े अटकाने वालों की तरफ देखना। अनदेखी कर दीजिये।

    बोधकथा अच्छा उपदेश देती है।

    पर समस्या यह है कि कुछ और संदेश भी बीच-बीच में बीप-बीप कर रहे हैं। मैं कुछ संशय अपनी ओर से रख कर सदस्यों से निवेदन कर रहा हूं कि वे भी अपने विचार रखें, जो जानकारी उन्हें प्राप्त हो उसे सामने लायें, शंका या शंका का निवारण अपनी बुद्धि, ज्ञान, विवेक, दर्शन के के अनुसार करें। ये भी निवेदन करूंगा कि विषय से दूर न भटकें। तो ये रहे मेरे बिन्दु:

    १. एक वृक्ष का ज़िक्र कथा में आया है जिसकी महत्ता यह है: "इसके नीचे आचार्य रजनीश को ज्ञान प्राप्त हुआ था जिसके बाद उन्हें ओशो कहा गया" । वह कौन सा ज्ञान था जो कि रजनीश को प्राप्त हुआ? और यह वृक्ष पहले से पवित्र था या अब पूजनीय हो गया? क्या यह ज्ञान उन्हें अपनी बहुत सारी कीमती कारों में से किसी एक में बैठे-बैठे भी प्राप्त हो सकता था? क्या ऐसा ही ज्ञान किसी किसान को हल चलाते हुए या मोची को जूते गाँठते हुए प्राप्त हो सकता है?

    २. "ओशो को पहले स्थानीय विरोध और बाद में अमरीकी सरकार का विरोध झेलना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपनी राह नहीं बदली और अंत में महान चिन्तक के रूप में इतिहास में अमर हुए."
    कई बार समाचारों को देने वाले समाचार-पत्र, रेडियो, टीवी आदि जानबूझ कर या अनजाने में गलत खबरें दे देते हैं जब कि सच कुछ और होता है। हम बेचारे पाठक-श्रोता-दर्शक भी क्या करें? सुनने में यह आया था कि ओशो पर उनकी गतिविधियों आधार पर, भले ही देर से, आरोप लगाये गये, वे दोषी पाये गये और अमरीका से खदेड़े गये। न तो आरोप लगाने वाले कुत्तों की तरह भौंकने वाले और न आरोपी ही किसी बेखबर ऐरावत सा सिद्ध हुआ।
    ओशो कितने महान चिन्तक थे, मेरे विचार से अभी इस विषय में इतिहास ने निर्णयात्मक रूप से उन्हें अमर करने की घोषणा अभी तक नहीं की है।
    मेरा संशय केवल यदा-कदा ओशो के विषय में प्रकाशित-प्रसारित समाचारों व अन्तर्जाल के आधार पर ही है। न तो मैं ओशो के दर्शन से परिचित हूं न उनके विषय में अलग से कोई जानकारी रखता हूं। हां, लम्बे समय तक उन्हें अपने आप को भगवान कहलाने पर आपत्ति नहीं हुई थी और बहुमूल्य कारों के प्रति उन्हें बहुत मोह था यह बातें मुझे हमेशा खली है।

    आपके विचार?

    - घनश्याम

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