शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

laghukatha: sannata -sanjiv

लघुकथा:
सन्नाटा
संजीव
*
​=
​'लल्लन! एक बात मानोगी?
-- ''का?''
= 'मुन्नू खों गोद ले लेओ'
-- ''सुबे-सुबे काये हँसी-ठठ्ठा करत हो? तुम ठैरे पक्के बामन… हम छू भी जाएँ तो सपरना परे…''
-- 'सो तो है मगर मुन्नू को नौकरी नई मिल रई,जितै जाउत है उतै आरच्छन… एई सें सोची…'
दोनों चुप हो गये, पसरा रह गया सन्नाटा।
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

4 टिप्‍पणियां:

  1. akpathak317@yahoo.co.in via yahoogroups.com

    वाह वाह बहुत ख़ूब बधाई
    एक झकझोरने वाली लघु कथा

    Sent from my iPhone
    A K pathak Jaipur
    +919413395592

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  2. Mahipal Tomar via yahoogroups.com

    यह हुई समाज में पैनी नजर के साथ साहित्यिक की उपस्थिति - वाह सलिल जी ,बधाई ।
    सादर ,शुभेच्छु ,
    महिपाल

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  3. achal verma

    आ. आचार्य जी,

    आज के हालात पर आता है रोना
    अश्रु भी ठिठके रहे नयनों के कोना

    आप की है दूर दृष्टि पड गई जब
    तब ये चमके बन के इन नयनों में सोना

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  4. Mahesh Dewedy via yahoogroups.com


    सत्य वचन
    महेशचंद्र द्विवेदी

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