सोमवार, 24 जून 2013

muktak: AGNI - sanjiv

मुक्तक : अग्नि
संजीव
*
अग्नि न मन की बुझने देना, रखो जला,
अग्नि न तन की जलने देना, बुरी बला।
अग्नि पका पक्का करती मृतिका-घट को-
अग्नि शांत तो सूरज देखो, सांझ ढला।।
*
अग्नि काम आती है खाद्य पकाने में,
अग्नि साथ देती जग को तज जाने में।
अग्नि काम बन सुर-असुरों को हेय करे-
अग्नि न हिचके तिल-तिल दिल दहकाने में।।
*
अग्नि न करती अंतर गैरों-अपनों में,
अग्नि न खोती चैन निरर्थक सपनों में।
अग्नि सलिल शीतल को पल में वाष्प करे-
अग्नि न होती क़ैद जगत के नपनों में।।
*
अग्नि न दैत्य, न दैव, सलिल को मीत लगे,
अग्नि न माया जाल, सनातन गीत सगे।
अग्नि दीप्ति से दीपित होते सचर-अचर-
अग्नि आत्म-परमात्म पुरातन प्रीत पगे।।
*

4 टिप्‍पणियां:

  1. Shishir Sarabhai <shishirsarabhai@yahoo.com

    संजीव भाई,

    क्या बात, क्या बात , क्या बात ,

    ढेर साधुवाद,
    शिशिर

    जवाब देंहटाएं
  2. Mukesh Srivastava

    बहुत सुन्दर संजीव जी

    सादर,
    मुकेश

    जवाब देंहटाएं
  3. vijay3@comcast.net@yahoogroups.com

    संजीव जी,

    //अग्नि न मन की बुझने देना, रखो जला,
    अग्नि न तन की जलने देना, बुरी बला।
    अग्नि पका पक्का करती मृतिका-घट को-

    अग्नि शांत तो सूरज देखो, सांझ ढला।।
    बहुत ही अच्छे भाव हैं।

    बधाई।

    सादर,

    विजय

    जवाब देंहटाएं
  4. kiran via yahoogroups.com

    kiran5690472@yahoo.co.in


    आ. सलिल जी, अग्नि के सभी रूपों को इस सुन्दर मुक्तक में समेंट लिया आपने

    बहुत सुन्दर !!!

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