षट्पदी :
संजीव
*
भाल पर, गाल पर, अम्बरी थाल पर
*
एक संध्या निराशा में डूबी मगर,
थाम कर कर निशा ने लगाया गले.
थक अँधेरे गए, रुक गए मनचले..
मौन दिनकर ने दिन कर दिया रश्मियाँ ,
कोशिशों की कशिश बढ़ चली मनचली-
द्वार संकल्प के खुल गए खुद-ब-खुद, पग चले अल्पना-कल्पना की गली..
vijay3@comcast.net via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआपकी मधुर पंक्तिओं को बहुत देर तक गुनगुनाता रहा। बधाई।
विजय
Madhu Gupta via yahoogroups.
जवाब देंहटाएंसंजीव जी
छंद बंद बुन कर कहे , गुन गुण कहे- कहते गए
लेखनी ने क्या लिख दिया
चित्र सचित्र देखते हम रह गए
कल्पना की अल्पना
वाह वाह क्या बात है
पढकर
मन्त्र मुग्ध होते गए
मधु
ksantosh_45@yahoo.co.in via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर सलिल जी । सुन्दर शब्द चयान बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
deepti gupta via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंअगर हम गलत नहीं है तो आपने यह रात्रि के आगमन का 'छायावादी' चित्र उकेरा है ! बहुत ही मनोहर है !
भाल पर, गाल पर, अम्बरी थाल पर
चांदनी शाल ओढ़े ठिठककर खड़ी .
ढेर सराहना के साथ,
दीप्ति
Kusum Vir via yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलिल जी,
अम्बरी थाल पर सितारों जड़ी ओढ़नी, और उसपर आचार्य जी के जगमगाते अलंकारों की
इंद्र धनुषी छटा बेमिसाल है l
निम्नांकित पंक्तियों की सुन्दर छटा देखते ही बनती है ;
मौन दिनकर ने दिन कर दिया रश्मियाँ , कोशिशों की कशिश बढ़ चली मनचली-
द्वार संकल्प के खुल गए खुद-ब-खुद, पग चले अल्पना-कल्पना की गली..
सादर,
कुसुम वीर
किसी कवि के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण यहे एही की उसकी रचना कोई सहृदय गुनगुनाये ... आपकी गुणग्राहकता को नमन.
जवाब देंहटाएंशब्द चित्र तो रात्रि का ही है, वाद से दूर रहना ठीक है क्या पता कब विवाद हो जाये …
जवाब देंहटाएं*:)) laughing *:)) laughing सही कहा !
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