बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

मुक्तिका: तुम क्या जानो ---- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

तुम क्या जानो ----

संजीव 'सलिल'

*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..

उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..

चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..

सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..

'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में

***************
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com

8 टिप्‍पणियां:

  1. Dr.M.C. Gupta द्वारा yahoogroups.com
    ekavita

    बहुत सुंदर, सलिल जी--

    चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.

    कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..



    --ख़लिश

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  2. - mcdewedy@gmail.com

    'तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.'

    waah salil ji. kya bhav hai aur kitna marmik? badhai.

    Mahesh chandra dwivedy

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  3. Mahipal Tomar द्वारा yahoogroups.com

    सलिल जी ' आरम्भिका ' की गहराई , विस्तार ,
    बेमिसाल । शायद यह ' दर्द ' ही दवा बनता है ,
    हद से गुजरने पर और ' मीठा -मीठा ' टीसता है ।
    अच्छे विरह , प्रेम या श्रंगार गीतों की बुनियाद
    भी भरता है । बधाई ,

    सादर ,

    महिपाल ,2 फरवरी 2013

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  4. akpathak317@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com

    आ0 सलिल जी
    आप के लेखन के क्या कहने ..आप तो स्वयं आचार्य हैं ...बहुत ही सुमधुर ’मुक्तिका’ लिखा आप ने
    बधाई;;;””
    इसी सन्दर्भ में एक फ़िल्म का गीत याद आ गया जो मुझे बहुत पसन्द है (शायद ’आकाश दीप’का है]

    दिल का दिया जला के गया ,ये कौन मेरी तन्हाई में..
    सोये नग्मे जाग उठे होंठों की शहनाई में.....

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  5. ksantosh_45@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com

    आ० सलिल जी
    पूरी मुक्तिका अच्छी लगी। विशेषरूप से निम्न पंक्तियाँ बहुत भायीं -
    'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
    तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में

    बधाई।
    सन्तोष कुमार सिंह

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  6. आपकी गुणग्राहकता को नमन।

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  7. Indira Pratap द्वारा yahoogroups.com

    kavyadhara


    क्या बात है संजीव भाई , मुक्तिका की , लिखते रहिए , सराहना सहित , इंदिरा

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  8. sn Sharma द्वारा yahoogroups.com

    मुक्तिका में आहत मन का दर्द है । आचार्य जी की अभिव्यक्ति सहज मन प्राण
    उद्वेलित कर जाती है जिसमे कितनी व्यथा छिपी है -

    सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.

    चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..



    'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.

    तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में

    सादर

    कमल

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