शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

गीत : ... सच है संजीव 'सलिल'

गीत :
... सच है
संजीव 'सलिल'
*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..
अर्पण और समर्पण का पल द्वैत मिटा अद्वैत वर कहे-
काया-माया छाया लगती मृग-मरीचिका लेकिन सच है  

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है. 
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*


10 टिप्‍पणियां:

  1. Dr.Prachi Singh

    आदरणीय संजीव जी,

    सादर प्रणाम!

    आपकी यह रचना प्रेम को उत्कृष्टतम ऊंचाइयों पर जीती है.

    भावों की शुचिता और कथ्यसान्द्रता पर मन मुग्ध है.

    बहुत बहुत बधाई इस सृजन के लिए.

    सादर.

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  2. Saurabh Pandey
    ऐसी रचनाओं पर कुछ कहा नहीं जा सकता, आदरणीय आचार्यजी, बल्कि मुग्धावस्था में एक पाठक रोम-रोम में हो रही झंकार को जीता है. जिस अनुभव और समझ को आपने साझा किया है वह एक विन्दु के बाद की समझ है. नियंता हर पाठक को उस सोपान पर उर्ध्वाधर बढ़ने को नियत करे.

    इन पंक्तियों पर बार-बार बधाई स्वीकार करें आदरणीय -

    तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
    सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
    खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
    प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
    तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
    नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

    सादर

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  3. Laxman Prasad Ladiwala

    आदरणीय श्री सौरभ जी और डॉ प्राची जी की टिप्पणियों से पुरतः सहमत होने के अतिरिक्त मेरे पास कुछ
    कहने को नहीं है आदरणीय श्री संजीव सलिल जी, मुझे लगता है निम्न पक्तियों के दार्शनिक तथ्य की
    समझ के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता -
    तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.
    मन पाकर मन हुआ पूर्ण, खो मन को मन में रही अचलता.
    जन्म-जन्म का संग न बंधन, अवगुंठन होता आत्मा का.
    प्राण-वर्तिकाओं का मिलना ही दर्शन है उस परमात्मा का..

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  4. ram shiromani pathak

    आदरणीय संजीव जी,

    सादर प्रणाम!!!!!!!!!!!!

    और कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है ..........................

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  5. SANDEEP KUMAR PATEL

    वाह वाह सर जी

    बहता ही चला गया इस काव्य सरिता में

    आहा क्या ही मधुर स्वरुप प्रस्तुत किया है प्रेम का

    शब्दों में अपने भाव कह नहीं पा रहा हूँ

    बहुत बहुत बधाई

    आप से सदैव सीखने को मिलता है सर जी

    अनुज का प्रणाम स्वीकारें

    और स्नेह यूँ ही बनाये रखें ........

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  6. Er. Ganesh Jee "Bagi"

    //तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
    सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..//

    क्या कहूँ आदरणीय इस रचना पर , शब्द साथ नहीं दे रहें हैं , बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना, आचार्य जी इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर नमन करता हूँ और बधाई प्रेषित करता हूँ ।

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  7. विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

    आदरणीय आचार्य जी!सादर नमन!

    //मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
    मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
    ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
    दूर किया अंतर से अंतर, भुला //पावना//-देना सच है.

    कितना गहन-गम्भीर भाव निस्सृत हुआ है।बलिहारी जाऊं।
    गुरुदेव इस //पावना// शब्द का क्या अर्थ है?

    तन पाकर तन प्यासा रहता, तन खोकर तन वरे विकलता.

    //वरे// कुछ समझ में नहीं आया।

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  8. Tushar Raj Rastogi

    स्रजनात्मक रचना के लिए बधाई | आभार

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  9. Parveen Malik
    आदरणीय आचर्य जी ,

    तुमसे मिलकर जान सका यह एक-एक का योग एक है.
    सृजन एक ने किया एक का बाकी फिर भी रहा एक है..
    खुद को खोकर खुद को पाया, बिसरा अपना और पराया.
    प्रिय! कैसे तुमको बतलाऊँ, मर-मिटकर नव जीवन पाया..
    तुमने कितना चाहा मुझको या मैं कितना तुम्हें चाहता?
    नाप माप गिन तौल निरुत्तर है विवेक, मन-अर्पण सच है.

    सच्ची अभिव्यक्ति ... बधाई स्वीकारे श्रीमान जी

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  10. आत्मीय प्राची जी, सौरभ जी, लक्ष्मण जी, रामशिरोमणि जी, संदीप जी, गणेश जी, विन्द्येश्वरी जी, तुषार जी, परवीन जी,

    पढ़ा-गुना रचना को प्रियवर धन्य हुए हम धन्यवाद शत ...

    वरे = वरण किया,
    देना-पावना = देना-पाना या देना-लेना

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