बुधवार, 9 जनवरी 2013

गीत: चलो हम सूरज उगायें -संजीव 'सलिल'

गीत:

चलो हम सूरज उगायें
*
संजीव 'सलिल'
*
चलो! हम सूरज उगाएं...
*
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....

विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलाएं...

आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
*
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सत सुनेंगे।
नाद अनहद गूंजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...

*********************

10 टिप्‍पणियां:

  1. vijay द्वारा yahoogroups.comबुधवार, जनवरी 09, 2013 3:34:00 pm

    vijay द्वारा yahoogroups.com

    संजीव जी,

    सभी पंक्तियाँ मनभावन हैं।

    विजय

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  2. deepti gupta

    अतिसुन्दर संजीव जी ....... बेहद प्यारे बिम्ब!
    विमल जल की सुनें कल-कल।
    भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
    सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
    सभी सब के काम आयें...


    *
    तिमिर में दीपक बनेंगे।
    शून्य में भी सत सुनेंगे।
    नाद अनहद गूंजता जो
    सुन 'सलिल' सबको सुनायें...

    ढेर साधुवाद !
    सादर,
    दीप्ति

    जवाब देंहटाएं
  3. Kanu Vankoti kavyadhara

    प्रियवर,

    कविता और साथ ही संलग्न चित्र , दोनों ही मन भावन ...मं में सुख- शांति का संचार करने वाले.

    हार्दिक साधुवाद !
    सादर,
    कनु

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  4. - shishirsarabhai@yahoo.com

    वाह, वाह , वाह *=D> applause*=D> applause
    अनन्य सराहना....

    सादर,
    शिशिर

    जवाब देंहटाएं
  5. Indira Pratap

    प्रिय संजीव भाई,
    अद्भुद चित्र अद्भुद कविता ----------- चलो! हम सूरज उगाएँ

    मरुस्थल भी जी उठेंगे, ग़जबका आत्म विश्वास, जीवन से भर देता है| अनेक साधूवाद| इन्दिरा

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  6. saeed Ahmed

    kavita bhi ur sabak bhi

    saeed ahmed editor WEB VARTA

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  7. - madhuvmsd@gmail.com

    आ. आचार्य जी
    आपकी पँक्तियों से प्रेरणा मिली, उत्साह बढ़ा,
    तिमिर से क्यों डरें हम
    भविष्य की कर कल्पना
    बोझिल करें क्यों आज अपना
    बुद्धि व विवेक का, क्यों करे न आज वरन हम ?
    तिमिर से क्यों डरें हम
    मधु

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  8. shar_j_n

    आदरणीय सलिल जी,

    सुन्दर कविता !

    ये बहुत ही सुन्दर :

    "सभी सब के काम आयें...
    *
    लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
    किसी के मन भाएंगे क्या?"

    सादर शार्दुला

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