मुक्तिका:
है तो...
संजीव 'सलिल'
*
गर्दन दबा दें अगर दर्द है तो।
आगी लगा दें अगर सर्द है तो।।
हाकिम से शिकवा न कोई शिकायत
गले से लगा लें गो बेदर्द है तो।।
यही है इनायत न दिल है अकेला
बेदिल भले पर कोई फर्द है तो।।
यादों के चेहरे भी झाड़ो बुहारो
तुम-हम नहीं पर यहाँ गर्द है तो।।
यूँ मुँह न मोड़ो, न नाते ही तोड़ो,
गुलाबी न चेहरा, मगर जर्द है तो।।
गर्मी दिलों की न दिल तक रहेगी
मौसम मिलन का रहे सर्द है तो।।
गैरों के आगे भले हों नुमाया
अपनों से हमको 'सलिल' पर्द है तो।।
***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
है तो...
संजीव 'सलिल'
*
गर्दन दबा दें अगर दर्द है तो।
आगी लगा दें अगर सर्द है तो।।
हाकिम से शिकवा न कोई शिकायत
गले से लगा लें गो बेदर्द है तो।।
यही है इनायत न दिल है अकेला
बेदिल भले पर कोई फर्द है तो।।
यादों के चेहरे भी झाड़ो बुहारो
तुम-हम नहीं पर यहाँ गर्द है तो।।
यूँ मुँह न मोड़ो, न नाते ही तोड़ो,
गुलाबी न चेहरा, मगर जर्द है तो।।
गर्मी दिलों की न दिल तक रहेगी
मौसम मिलन का रहे सर्द है तो।।
गैरों के आगे भले हों नुमाया
अपनों से हमको 'सलिल' पर्द है तो।।
***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
deepti gupta द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंवाह,संजीव जी,
हमारी ठिठोली को केंद्रित करके आपने बहुत खूब मुक्तिका रची है!
आप भी धनाढ्य कलमकार है जिसकी लेखनी से रस, छंद, कविता, मुक्तिका, हाइकु, दोहे - विविध प्रकार के रत्न निकलते ही रहते है और समूह को दैदीप्यमान रखते है! शरद जीवेत तव लेखनी!
ढेर सराहना के साथ,
सादर,
sn Sharma yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआ0 आचार्य जी ,
वाह खूब मजा आ गया।
गजब की ये सर्दी, रुई या दुई
आजा रजाई में ओ छुईमुई।
आपकी मुक्तिका ने नीचे की दो सतरें मुझे भी लिखा ली-
बाहर खडा क्यों ललकारता है
अखाड़े में आजा अगर मर्द है
सादर
कमल
दादा
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
छुई मुई की खोज में, 'सलिल हुआ हैरान।
हाथ न लेकिन आ रही आफत में है जान।।
Indira Pratap द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंkavyadhara
संजीव भाई पहली पंक्ति पढ़ते ही होश फ़ाख्ताहो गए जीवन में अब कहीं भी दर्द हो उफ़ !भी नहीं करेगे ,भई कहाँ से ऐसे मजेदार ख्याल आते हैं आपको ,
आपकी इस मुक्तिका के तो हम कायल हो गए , कोई और भी साथ होता तो इसको पढने में और मजा आता ,अभी तो हम अकेले ही ख़ुश हो रहे हैं | गर्दन दबा दें अगर दर्द है तो ,खूब बहुत खूब | दिद्दा
Lalit Walia kavyadhara
जवाब देंहटाएंआ. संजीव जी...
आप भी ना बस..., कहाँ क्लासिकल दोहे- चौपाइयां, बाल-कवितायें, मुक्त-छंद और अब ये ..,
वाह-वाह क्या बात है। अपनी कुछ पुरानी पंक्तियाँ याद आ गयी...
बूँदें ये पसीने की,कैसी है परेशानी...
माथे को मैं दबा दूं, या ऐस्प्रो है लानी ...
गरचे ये पसीना है गर्मी की मेहरबानी ...
पंखे को मैं चलाऊँ, या लाऊं नीम्बू पानी...
बिजली भी आपकी है,और आपका मीटर है..
बिल इसका जो भी होगा, वो आपके ही सर है..
आ जायें बे-तक़ल्लुफ़, ये आपका ही घर है ।।
बहुत ढेर सी दाद के साथ ...
~ 'आतिश'
- shishirsarabhai@yahoo.com
जवाब देंहटाएंआतिश भाई ,
संजीव जी की इस 'मुक्तिका ' की प्रेरणा दीप्ति जी की लिखी हुई वह पंक्ति है जो उन्होंने प्रणव भारती जी से चुटकी लेते हुए लिखी थी - ' आपकी 'गर्दन में दर्द है तो, हम गर्दन दबा दे....! *:)) laughing
बस फिर क्या था संजीव जी ने मज़ेदार मुक्तिका रच डाली .
सादर,
शिशिर
वाह... वाह... आतिश जी !
जवाब देंहटाएंलाजवाब... पूरी रचना दीजिए, अभी तो प्यास शेष है. आपकी कलम को सादर नमन विविध भाषा रूपों में, विविध विधाओं में विविध रसों की वर्षा कर विस्मित कर देते हैं. आपकी सामर्थ्य पर बहुधा विस्मित होता हूँ, अवाक रह जाता हूँ. टिप्पणी क्या दूँ समझ ही नहीं पाता. आपसे प्रेरणा लूं यही श्लाघ्य है.
sn Sharma द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंCongratulations Engineers !
kamal