बुधवार, 19 दिसंबर 2012

नवगीत: अब तो अपना भाल उठा... संजीव 'सलिल'


नवगीत:
अब तो अपना भाल उठा...
संजीव 'सलिल'
*
बहुत झुकाया अब तक तूने 
अब तो अपना भाल उठा...
*
समय श्रमिक!
मत थकना-रुकना.
बाधा के सम्मुख
मत झुकना.
जब तक मंजिल
कदम न चूमे-
माँ की सौं
तब तक
मत चुकना.

अनदेखी करदे छालों की
गेंती और कुदाल उठा...
*
काल किसान!
आस की फसलें.
बोने खातिर
एड़ी घिस ले.
खरपतवार 
सियासत भू में-
जमी- उखाड़
न न मन-बल फिसले.
पूँछ दबा शासक-व्यालों की
पोंछ पसीना भाल उठा...
*
ओ रे वारिस
नए बरस के.
कोशिश कर
क्यों घुटे तरस के?
भाषा-भूषा भुला
न अपनी-
गा बम्बुलिया
उछल हरष के.
प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
बजा मंजीरा ताल उठा...
*

14 टिप्‍पणियां:

  1. seema agrawal

    बहुत सुन्दर और भाव समृद्ध नव गीत आदरणीय सलिल जी ......एक एक पंक्तिप्रवाहमान हो अलख जगाती दिख रही है ......

    .अनदेखी करदे छालों की
    गेंती और कुदाल उठा...हौसलों को दिशा देती हुंकार

    पूँछ दबा शासक-व्यालों की
    पोंछ पसीना भाल उठा.......वाह बहुत खूब स्वाभिमान से ओतप्रोत सन्देश

    भाषा-भूषा भुला
    न अपनी-
    गा बम्बुलिया
    उछल हरष के.
    प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
    बजा मंजीरा ताल उठा......इस प्रकार के शब्दों के प्रयोग गीत को जो सौन्दर्य और रोचकता प्रदान कर रहे हैं वो एक अनुभवी कलम ................................से ही निकल सकते हैं

    हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद

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  2. सीमा जी!
    गीत प्रस्तुत करते ही आपके द्वारा पढ़कर तत्परता से दी गयी सटीक प्रतिक्रिया मन को प्रसन्न कर गयी. हार्दिक आभार.

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  3. rajesh kumari

    बहुत सुन्दर प्रवाह मान ओजपूर्ण नव गीत हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय सलिल जी

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  4. MAHIMA SHREE

    ओ रे वारिस
    नए बरस के.
    कोशिश कर
    क्यों घुटे तरस के?
    भाषा-भूषा भुला
    न अपनी-
    गा बम्बुलिया
    उछल हरष के.
    प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
    बजा मंजीरा ताल उठा...

    वाह !! बहुत ही सुन्दर गीत..आदरणीय संजीव सर... मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें /

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  5. राजेश जी, महिमा जी

    आपको गीत रुचा तो मेरा कवि कर्म सफल प्रतीत हो रहा है.

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  6. Saurabh Pandey

    शब्द चित्र प्रस्तुत करें तो कविता होती है विधा चाहे कई हो. आचार्यजी, आपने इस नवगीत के जरिये माटी की गंध में रचे-बसे कृषक-श्रमिकों को जो मान दिया है वह आपकी सहृदयता को उजागर कर रहा है. शब्द-शब्द सुगढ तो हैं ही, रचना की अंतर्धारा आह्वान करती हुई है. गेयता और भाव संप्रेषण का सुन्दर उदाहरण है यह रचना.

    सार्थक गीत के लिये आपको सादर प्रणाम.

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  7. सौरभ जी!
    हौसला अफजाई का शुक्रिया.

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  8. PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA

    आदरणीय सलिल जी, सादर

    यदि खर पतवार हट जाए तो राष्ट्र उत्थान बगैर प्रयास के हो जाये.

    बधाई

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  9. कृष्ण नन्दन मौर्य

    खरपतवार
    सियासत भू में-
    जमी- उखाड़
    न मन-बल फिसले
    पूँछ दबा शासक-व्यालों की
    पोंछ पसीना भाल उठा...
    ..नये समय की चुनौतियों से रूबरू कराता और उनसे जूझने की प्रेरणा देता बहुत ही सुंदर गीत.
    प्रत्‍युत्तर दें

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  10. surenderpal vaidya

    बहुत झुकाया अब तक तूने
    अब तो अपना भाल उठा ।
    प्रेरणास्पद सुन्दर नवगीत के लिए बधाई संजीव जी ।

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  11. कल्पना रामानी

    माँ की सौं
    तब तक
    मत चुकना
    अनदेखी करदे छालों की
    गेंती और कुदाल उठा
    बहुत सुंदर गीत के लिए संजीव जी को हार्दिक बधाई
    प्रत्‍युत्तर दें

    जवाब देंहटाएं

  12. गीता पंडित

    ओ रे वारिस
    नए बरस के
    कोशिश कर
    क्यों घुटे तरस के?
    भाषा-भूषा भुला
    न अपनी-
    गा बम्बुलिया
    उछल हरष के
    प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
    बजा मंजीरा ताल उठा

    बहुत सुंदर नवगीत ..
    भाषा बिम्ब और कहन के क्या कहने .

    बहुत बधाई आपको सर ..
    प्रत्‍युत्तर दें

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  13. dks poet
    Subject: Re: आदरणीय सलिल जी,
    बहुत सुंदर नवगीत है। ऐसी रचनाएँ मंच पर अलग से भेजा करें, उसमें चाहे तो मूल ईमेल का संदर्भ दे दिया करें।
    प्रतिक्रिया स्वरुप भेजी गई रचनाएँ प्रतिक्रियाओं में खो जाती हैं, आज अचानक नज़र पड़ी।
    सादर
    धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

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  14. शार्दूला जी
    आपको रुचा तो मेरा कवि कर्म सफल हुआ.

    बम्बुलिया नर्मदांचल में गाया जाने वाला लोक गीत है.

    नरमदा तो ऐसी मिली ऐसी मिली ऐसी मिली रे
    जैसे मिल गै मताई औ बाप रे....
    नरमदा मैया हो (टेर)
    Sanjiv verma 'Salil'
    salil.sanjiv@gmail.com
    http://divyanarmada.blogspot.com







    आदरणीय आचार्य सलिल जी,

    अति सुन्दर नवगीत!

    काल किसान!
    आस की फसलें.
    बोने खातिर
    एड़ी घिस ले.
    खरपतवार
    सियासत भू में-
    जमी- उखाड़
    न मन-बल फिसले.
    पूँछ दबा शासक-व्यालों की
    पोंछ पसीना भाल उठा... ---- क्या बात है! बहुत बहुत सुन्दर!
    *
    ओ रे वारिस
    नए बरस के.
    कोशिश कर
    क्यों घुटे तरस के?
    भाषा-भूषा भुला
    न अपनी-
    गा बम्बुलिया --- ये बम्बुलिया का यहाँ क्या अर्थ हुआ आचार्य जी?
    उछल हरष के.
    प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
    बजा मंजीरा ताल उठा... ----- कितना सुन्दर पद ये भी!
    *
    सादर शार्दुला

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