मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
जहाँ से निकलना सम्हल के निकलना,
अपनों से अपने ठगाने लगे हैं।।
संजीव 'सलिल'
*
मगरमच्छ आँसू बहाने लगे हैं।
शिकंजे में मछली फँसाने लगे हैं।।
कोयल हुईं मौन अमराइयों में।
कौए गजल गुनगुनाने लगे हैं।।
न ताने, न बाने, न चरखा-कबीरा
तिलक- साखियाँ ही भुनाने लगे हैं।।
अपनों से अपने ठगाने लगे हैं।।
'सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
बनने में उनको ज़माने लगे हैं।।
***
rajesh kumari
जवाब देंहटाएं'सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
बनने में उनको ज़माने लगे हैं।।
वाह, वाह आदरणीय सलिल जी! क्या बात कही, दाद कबूल कीजिये
apka abhar shat-shat.
जवाब देंहटाएंअरुन शर्मा "अनन्त"
जवाब देंहटाएंवाह आदरणीय सलिल सर वाह बेहद सुन्दर मुक्तिका: रची है, मुझे बेहद पसंद आई और रचना कई बार पढ़ी बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंPRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA
सर जी निश्चय ही बनाने में ज़माने लगे हैं
सादर अभिवादन के साथ बधाई,
MAHIMA SHREE
जवाब देंहटाएंन ताने, न बाने, न चरखा-कबीरा
तिलक- साखियाँ ही भुनाने लगे हैं।।
सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
बनने में उनको ज़माने लगे हैं।।
आदरणीय सर ..वाह !!
क्या खूब कही आपने ..बधाई स्वीकार करें
Ashok Kumar Raktale
जवाब देंहटाएंपरम आदरणीय सलिल जी सादर, बहुत सुन्दर मुक्तिका बधाई स्वीकारें.
arun ji, pradeep ji, mahima ji, ashok ji
जवाब देंहटाएंapka abhar shat-shat.