बुधवार, 26 दिसंबर 2012

मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
मगरमच्छ आँसू बहाने लगे हैं।
शिकंजे में मछली फँसाने लगे हैं।।
कोयल हुईं मौन अमराइयों में।
कौए गजल गुनगुनाने लगे हैं।।
न ताने, न बाने, न चरखा-कबीरा 
तिलक- साखियाँ ही भुनाने लगे हैं।।
जहाँ से निकलना सम्हल के निकलना,
अपनों से अपने ठगाने लगे हैं।।


'सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
बनने में उनको ज़माने लगे हैं।। 
***

7 टिप्‍पणियां:

  1. rajesh kumari

    'सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
    बनने में उनको ज़माने लगे हैं।।

    वाह, वाह आदरणीय सलिल जी! क्या बात कही, दाद कबूल कीजिये

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  2. अरुन शर्मा "अनन्त"
    वाह आदरणीय सलिल सर वाह बेहद सुन्दर मुक्तिका: रची है, मुझे बेहद पसंद आई और रचना कई बार पढ़ी बधाई स्वीकारें.

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  3. PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA

    सर जी निश्चय ही बनाने में ज़माने लगे हैं

    सादर अभिवादन के साथ बधाई,

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  4. MAHIMA SHREE
    न ताने, न बाने, न चरखा-कबीरा
    तिलक- साखियाँ ही भुनाने लगे हैं।।

    सलिल' पत्थरों पर निशां बन गए जो
    बनने में उनको ज़माने लगे हैं।।

    आदरणीय सर ..वाह !!
    क्या खूब कही आपने ..बधाई स्वीकार करें

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  5. Ashok Kumar Raktale

    परम आदरणीय सलिल जी सादर, बहुत सुन्दर मुक्तिका बधाई स्वीकारें.

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  6. arun ji, pradeep ji, mahima ji, ashok ji

    apka abhar shat-shat.

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