मुक्तिका:
अपने चेहरे
संजीव 'सलिल'
*
जिन चेहरों में अपने चेहरे.
उनको देते देखा पहरे.
कृत्रिम गूँगे, अंधे, लंगड़े -
'सलिल' कभी थे नकली बहरे.
हमने जब ऊँचाई नापी,
देख रहे वे कितने गहरे.
कलकल बहती लहरों से वे
पूछें तट पर कितना ठहरे.
दिखे चमकता जब भी सूरज
कहें न तुम सँग बादल घहरे.
दिल चट्टान 'सलिल' का देखा-
कहा: न तुम अब तक क्यों लहरे?
*****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in
अपने चेहरे
संजीव 'सलिल'
*
जिन चेहरों में अपने चेहरे.
उनको देते देखा पहरे.
कृत्रिम गूँगे, अंधे, लंगड़े -
'सलिल' कभी थे नकली बहरे.
हमने जब ऊँचाई नापी,
देख रहे वे कितने गहरे.
कलकल बहती लहरों से वे
पूछें तट पर कितना ठहरे.
दिखे चमकता जब भी सूरज
कहें न तुम सँग बादल घहरे.
दिल चट्टान 'सलिल' का देखा-
कहा: न तुम अब तक क्यों लहरे?
*****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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- prans69@gmail.com
जवाब देंहटाएंउम्दा मुक्तिका के लिए बधाई संजीव सलिल जी .
प्राण शर्मा
drdeepti25@yahoo.co.in yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंउत्तम रचना के लिए बधाई !
सादर,
दीप्ति
sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंआ० आचार्य जी,
यथार्थता का सही शब्द-चित्र | साधुवाद |
सादर
कमल