चित्र पर कविता:
संजीव 'सलिल'
दिल दौलत की जंग में, किसकी होगी जीत?
कौन बता सकता सखे!, किसको किससे प्रीत??
किसको किससे प्रीत परख का पैमाना क्या?
रूहानी-जिस्मानी रिश्ता मन बहाना क्या??
'सलिल' न तू रूहानी रिश्ते से हो गाफिल.
जिस्मानी रिश्ता पल भर का मान न मंजिल..
*
तुला तराजू या इसको, बैलेंस कहें हम.
मानें इसकी बात सदा, बैलेंस रहें हम..
दिल-दौलत दोनों से ही, चलती है दुनिया.
जैसे अँगना की रौनक हैं, मुन्ना-मुनिया..
एक न हो तो दूजा उसको, सके ना भुला.
दोनों का संतुलन साधिये, कहे सच तुला..
*
धरती पर पग सदृश धन, बनता है आधार.
नभचुंबी अरमान दिल, करता जान निसार..
तनकर तन तौले तुला, मन को सके न तौल.
तन ही रखता मान जब, मन करता है कौल..
दौलत-दिल तन-मन सदृश, पूरक हैं यह सार.
दोनों में कुछ सार है कोई नहीं निस्सार..
****
तराज़ू
-- विजय निकोर
*
मुझको थोड़ी-सी खुशी की चाह थी तुमसे
दी तुमने, पर वह भी पलड़े पर
तौल कर दी ?
मैंने तो कभी हिसाब न रखा था,
स्नेह, सागर की लहरों-सा
उन्मत्त था, उछल रहा था,
उसे उछलने दिया ।
जो चाहता, तो भी रोक न सकता उसको,
सागर के उद्दाम उन्माद पर कभी,
क्या नियंत्रण रहा है किसी का ?
भूलती है बार-बार मानव की मूर्च्छा
कि तराज़ू के दोनों पलड़ों पर
स्नेहमय ह्रदय नहीं होते,
दूसरे पलड़े पर सांसारिकता में
कभी धन-राशि,
कभी विसंगति और विरक्ति,
कभी अविवेकी आक्रोश,
और, .. और भी तत्व होते हैं बहुत
जिनका पलड़ा
माँ के कोमल ममत्व से,
बहन की पावन राखी से,
मित्र के निश्छल आवाहन से
कहीं भारी हो जाता है ।
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संजीव 'सलिल'
दिल दौलत की जंग में, किसकी होगी जीत?
कौन बता सकता सखे!, किसको किससे प्रीत??
किसको किससे प्रीत परख का पैमाना क्या?
रूहानी-जिस्मानी रिश्ता मन बहाना क्या??
'सलिल' न तू रूहानी रिश्ते से हो गाफिल.
जिस्मानी रिश्ता पल भर का मान न मंजिल..
*
तुला तराजू या इसको, बैलेंस कहें हम.
मानें इसकी बात सदा, बैलेंस रहें हम..
दिल-दौलत दोनों से ही, चलती है दुनिया.
जैसे अँगना की रौनक हैं, मुन्ना-मुनिया..
एक न हो तो दूजा उसको, सके ना भुला.
दोनों का संतुलन साधिये, कहे सच तुला..
*
धरती पर पग सदृश धन, बनता है आधार.
नभचुंबी अरमान दिल, करता जान निसार..
तनकर तन तौले तुला, मन को सके न तौल.
तन ही रखता मान जब, मन करता है कौल..
दौलत-दिल तन-मन सदृश, पूरक हैं यह सार.
दोनों में कुछ सार है कोई नहीं निस्सार..
****
तराज़ू
-- विजय निकोर
*
मुझको थोड़ी-सी खुशी की चाह थी तुमसे
दी तुमने, पर वह भी पलड़े पर
मैंने तो कभी हिसाब न रखा था,
स्नेह, सागर की लहरों-सा
उन्मत्त था, उछल रहा था,
जो चाहता, तो भी रोक न सकता उसको,
सागर के उद्दाम उन्माद पर कभी,
भूलती है बार-बार मानव की मूर्च्छा
कि तराज़ू के दोनों पलड़ों पर
स्नेहमय ह्रदय नहीं होते,
दूसरे पलड़े पर सांसारिकता में
कभी धन-राशि,
कभी विसंगति और विरक्ति,
कभी अविवेकी आक्रोश,
और, .. और भी तत्व होते हैं बहुत
जिनका पलड़ा
माँ के कोमल ममत्व से,
बहन की पावन राखी से,
मित्र के निश्छल आवाहन से
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंkavyadhara
वाह, वाह, वाह
सुदर और जीवंत रचना , साधुवाद!
कमल
vijay ✆ vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
जवाब देंहटाएंआ० सलिल जी,
बहुत खूब ! बहुत खूब !
विजय
deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंkavyadhara
बहुत सटीक और मनोहारी अभिव्यक्ति !
सादर,
दीप्ति