रविवार, 8 जुलाई 2012

अभिनव आयोजन: चित्र पर काव्य रचना 1:

अभिनव आयोजन:

चित्र पर काव्य रचना - 1 : 

(नीचे एक चित्र प्रस्तुत है जिस पर कविगणों ने अपनी कलम चलाई है। आप भी अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाइए और मनोभावों को पाठकों तक पहुँचाइए। छंद बंधन नहीं किन्तु गद्य को टिप्पणी में ही स्थान मिलेगा-सं.)

  

डॉ.दीप्ति गुप्ता 
*

तुम,

अपनी हरकतों से 
बाज़ नहीं आओगे?   
जब चमेली  से  
बतिया रहे थे 
तब-

भूल गए थे क्या   
कि  
मैं अभी जिंदा  हूँ .....?

*
deepti gupta <drdeepti25@yahoo.co.in>
********

 
एस. एन. शर्मा 'कमल'
* 

मैं यहाँ खडी हूँ लाज नहीं आती उधर ताकते
तुम्हारी खैर नहीं फिर देखा जो उधर झाँकते

सुना नहीं तुमने, बगला भगत बने खड़े हो
अरे शेर की औलाद हो किस फेर में पड़े हो

गुर्राती ही नहीं हूँ न ही गुस्सा पचा पाऊँगी
फिर वह इधर आई तो कच्चा चबा जाऊंगी

कहीं भूले से मानव की औरत न समझ लेना
शेरनी हूँ, आता किसी को पास न फटकने देना

दाढी मूछें सफ़ेद हो गईं इनका तो ख़याल  करो
हया शरम बाकी हो तो व्यर्थ क्यों बवाल करो

 

*

s.n.sharma ahutee@gmail.com
 **********

 
प्रणव भारती
*
अच्छा  ! 
     ये मुंह और मसूर की दाल!
     समझते  हो ऐसी-वैसी 
     जो फिर से  दिया  दाना डाल!
     तुम जैसे लफंगों को 
     खूब समझती हूँ मैं|
     कोतवाल की हूँ  बेटी 
     सबसे सुलटती हूँ  मैं|
     पिताजी तक तो बात 
     जाने की नौबत ही नहीं आएगी 
     ये झांसी की रानी तुम्हारा सिर 
     अपने कदमों में झुकवाएगी|
     भारत की बेटी हूँ, गर्व है मुझे 
     अरे! तुम क्या घास खाकर छेड़ोगे मुझे !
     घसीटकर ले जाऊँगी
     जिन्दगी भर चक्की पिसवाऊंगी .....
     हिम्मत थी तो मांगते 
     अपनी करनी पर माफी 
     पहले जो हो चुका तुमसे तलाक  
     क्या वो नहीं था काफी!
     तुम जैसों ने ही तो 
     नाक कटवाई है,
     कभी पति रहे हो हमारे,
     सोचने में भ़ी शर्म आयी है|
     जा पड़ो किसी खाई में या 
     उसके आंचल में मुंह छिपाकर|
     मैं बहुत मस्त हूँ, 
     अपना सुकून पाकर 
     क्या समझा है मुझे 
     मिट्टी का खिलौना?
     मैं भ़ी लेती हूँ साँस, 
     मेरे भ़ी है 'दिल'का एक कोना 
     दूर हो नजरों से मेरी 
     वर्ना लात खाओगे
     जो रही-सही है इज्जत 
     वह भी गँवाओगे||
     *
      Pranava Bharti  pranavabharti@gmail.com
      **********

संजीव 'सलिल'
*
दोहा ग़ज़ल:
*
तुम्हें भले ही मानता, सकल देश सरदार.
अ-सरदार तुम लग रहे, सत्य कहूँ बेकार..

असर न कुछ मंहगाई पर, बेकाबू व्यापार.
क्या दलाल ही चलाते, भारत की सरकार?

जिसको देखो वही है, घूसखोर गद्दार.
यह संसद तो है नहीं, मैडम हों रखवार..

मुँह लटकाए क्यों खड़े?, सत्य करो स्वीकार.
प्रणव चतुर सीढ़ी चढ़ा, तुम ढोओगे भार..

बौड़म बुद्धूनाथ तुम, डींग रहे थे मार.
भुला संस्कृति को दिया, देश बना बाज़ार..

अर्थशास्त्र की दुहाई, मत देना इसबार.
व्यर्थशास्त्र यह हो रहा, जनगण है बेज़ार..

चलो करो कुछ काम तुम, बाई न आयी यार.
बोलो कैसे सम्हालूँ, मैं अपना घर-द्वार?

चल कपड़ा-बर्तन करो, पहले पोछो कार.
मैं जाती क्लब तुम रखो, घर को 'सलिल' बुहार..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

8 टिप्‍पणियां:

  1. drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


    आदरणीय प्रणव जी,

    शान्त. शान्त, शान्त ! कविता तो बहुत खूब लिखी है ! क्या धमकाया है .....मान गए ! इसे पढ़ कर तो अच्छे -अच्छे सूरमा भाग खड़े होगें ! एक लेखिका के खोल में एक पुलिसवाली के तेवर भी छिपे हैं, यह जानकर खुशी ही नहीं हुई अपितु हमारा मनोबल भी बढ़ा !
    ढेर सराहना के साथ, जाते जाते आपके लिए नारा लगाने का मन कर रहा है - 'प्रणव भारती जिंदाबाद' ! :)) laughing
    सस्नेह ,
    दीप्ति

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  2. - kanuvankoti@yahoo.com

    प्रणव जी की कविता अल्लाह, अल्लाह , उस पे दीप्ति जी की टिप्पणी माशा अल्लाह ......मन आनंदित हुआ (डरा भी :(( crying)

    भरपूर बधाई के साथ,
    सादर,
    कनु

    जवाब देंहटाएं
  3. deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.comरविवार, जुलाई 08, 2012 10:57:00 am

    drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


    आ.संजीव जी, ढेर सराहना स्वीकारें !
    ' बौड़म बुद्धूनाथ' - इस शब्द युग्म पे हम बलिहारी .......
    सादर
    दीप्ति

    दोहा ग़ज़ल:

    संजीव 'सलिल'
    *
    तुम्हें भले ही मानता, सकल देश सरदार.
    अ-सरदार तुम लग रहे, सत्य कहूँ बेकार................................................बढ़िया तंज

    असर न कुछ मंहगाई पर, बेकाबू व्यापार.
    क्या दलाल ही चलाते, भारत की सरकार?.................................................. क्या बात है !

    जिसको देखो वही है, घूसखोर गद्दार.................................................सही , एकदम सही
    यह संसद तो है नहीं, मैडम हों रखवार..

    मुँह लटकाए क्यों खड़े?, सत्य करो स्वीकार................................................. लगे रहो संजीव भाई , कभी तो करेगे ये सत्य स्वीकार
    प्रणव चतुर सीढ़ी चढ़ा, तुम ढोओगे भार..

    बौड़म बुद्धूनाथ तुम, डींग रहे थे मार............................................... वाह, वाह
    भुला संस्कृति को दिया, देश बना बाज़ार..

    अर्थशास्त्र की दुहाई, मत देना इसबार.
    व्यर्थशास्त्र यह हो रहा, जनगण है बेज़ार..

    चलो करो कुछ काम तुम, बाई न आयी यार............................ तेवर
    बोलो कैसे सम्हालूँ, मैं अपना घर-द्वार? ...... ...........बहुत खूब

    चल कपड़ा-बर्तन करो, पहले पोछो कार........=)) rolling on the floor
    मैं जाती क्लब तुम रखो, घर को 'सलिल' बुहार....................:)) laughing

    *

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  4. - kanuvankoti@yahoo.com

    आदरणीय संजीव जी,

    उत्तम व्यंग्य किए है जिनकी बहुत ज़रूरत है . समाज को झूठे, मक्कारों से न जाने कब छुटकारा मिलेगा.

    देश की बेहतरी के लिए ढेर कामनाएँ और प्रार्थनाएं

    सादर,
    कनु

    जवाब देंहटाएं
  5. sn Sharma ✆ ahutee@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


    आ० आचार्य जी,
    आज की राजनीति पर दोहा ग़ज़ल का सुन्दर प्रयोग| साधुवाद !
    सादर
    कमल

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीय संजीव जी,

    उत्तम व्यंग्य किए है जिनकी बहुत ज़रूरत है . समाज को झूठे, मक्कारों से न जाने कब छुटकारा मिलेगा.

    देश की बेहतरी के लिए ढेर कामनाएँ और प्रार्थनाएं

    सादर,
    कनु

    जवाब देंहटाएं
  7. pranavabharti@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara


    आ.सलिल जी,
    अति सार्थक व्यंग्यों के लिए अनेकानेक बघाई,
    हाँ जी , दुहाई है दुहाई
    बेगम जी क्लब को चलीं
    झाडू हाथ में पकडाई
    बिन ब्याहे बच्चों !
    जरा सोच समझकर
    करना कुड़माई ||

    ' बौडम बुद्धूनाथ' बहुत अलग प्रयोग है,आकर्षित करता है|
    बहुत बधाई
    सादर
    प्रणव भारती

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  8. - murarkasampatdevii@yahoo.co.in

    आ. आचार्य जी,
    आज की राजनीति पर दोहा गजल के माध्यम से सुन्दर व्यंग्य किया है. समाज के झूठे मक्कारों से छुटकारा अवश्य मिलेगा,
    सादर,
    संपत

    श्रीमती संपत देवी मुरारका
    Smt. Sampat Devi Murarka
    लेखिका, कवयित्री, पत्रकार
    Writer, Poetess, Journalist
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