गीत-
तुम मुसकायीं...
संजीव 'सलिल'
*
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.
कर प्रयास का थाम
मुग्ध नव आशा झूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
धूप सुनहरी
रूप देखकर मचल रही है.
लेख उमंगें पुरवैया खुश
उछल रही है.
गीत फागुनी, प्रीत सावनी
अचल रही है.
पुरा-पुरातन रीत-नीत
नित नवल रही है.
अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
हाथ बाँधकर मुट्ठी देखे
नील गगन को.
जिव्हा पानकर घुट्टी
चाहे लगन मगन को.
श्रम न देखता बाधा-अडचन
शूल अगन को.
जब उठता पग, सँग-सँग पाता
'सलिल' शगन को.
नेह नर्मदा नहा,
झूम मंजिल को छूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in
तुम मुसकायीं...
संजीव 'सलिल'
*
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.
कर प्रयास का थाम
मुग्ध नव आशा झूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
धूप सुनहरी
रूप देखकर मचल रही है.
लेख उमंगें पुरवैया खुश
उछल रही है.
गीत फागुनी, प्रीत सावनी
अचल रही है.
पुरा-पुरातन रीत-नीत
नित नवल रही है.
अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
हाथ बाँधकर मुट्ठी देखे
नील गगन को.
जिव्हा पानकर घुट्टी
चाहे लगन मगन को.
श्रम न देखता बाधा-अडचन
शूल अगन को.
जब उठता पग, सँग-सँग पाता
'सलिल' शगन को.
नेह नर्मदा नहा,
झूम मंजिल को छूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.
http://hindihindi.in
achal verma ✆ ekavita
जवाब देंहटाएंइस रचना के पीछे किसी नवजात शिशु की मनोहारी मुस्कान दिखी है मुझे । ऐसी अनुभूति
ही तो मन को ईश्वरीय तत्व की झलक दिखा देती है ।
धन्य हैं आप आचार्य जी ,
आपकी लेखनी धन्य है ।
और आपकी कल्पना को शत शत प्रणाम ।।
अचल वर्मा
shriprakash shukla ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्य जी,
सुन्दर कल्पना एवं मनोहारी संयोजन |
बधाई हो |
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल
2012/4/15
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंkavyadhara
आ० आचार्य जी ,
प्रकृति नटी के उषाकाल का मनोहर शब्द-चित्र के लिये साधुवाद |
गीत मुझे ऐसा ही लगा | यदि कोई अन्य भाव रहा हो शंका निवारण
करने का कष्ट करें|
सादर
कमल
vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.comkavyadhara
जवाब देंहटाएंआ० ‘सलिल’ जी,
सुन्दर रचना हेतु साधुवाद ।
विजय
deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंkavyadhara
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.
मनोहारी रचना के लिए साधुवाद !
सादर,
दीप्ति
- kanuvankoti@yahoo.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्य जी ,
वाह क्या बात है -
अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
प्यारी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई,
सादर,
कनु
*
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
जवाब देंहटाएंज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.
मनोहारी रचना के लिए साधुवाद !
सादर,
दीप्ति
rachnaye achchi hai sabhi ko pasand aayegi
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्य जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर, आनंदित करने वाली रचना !
साधुवाद !
सादर
प्रताप
madanmohanarvind@gmail.com द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंekavita
आदरणीय आचार्य जी,
सुन्दर और सटीक रचना के लिए साधुवाद स्वीकारें.
सादर
मदन मोहन 'अरविन्द'
बेनामी shar_j_n ✆ ने कहा…
जवाब देंहटाएंshar_j_n@yahoo.com ekavita
आदरणीय आचार्य जी,
बहुत बहुत सुन्दर छंद!
छंद सुभाय
भाव बढें और मन को छू लें
पढ़ कर इनको
पाठक के मन जूही फूले
सृजन वृष्टि से
मन का प्रमुदित मोर हो गया :)
बंद बंद चित्तचोर हो गया!
सादर शार्दुला
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तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
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निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचाकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.--- ये अतिसुन्दर!
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया. --- जैसे प्रकृति, शहर में आई हो मानव का ताप हरने !
अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.--- इस पंक्ति का बिम्ब कैसे देखूं आचार्य जी?
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श्रम न देखता बाधा-अडचन
शूल अगन को.
जब उठता पग, सँग-सँग पाता
'सलिल' शगन को.----- ये कितना शुभ, सुन्दर!
Wednesday, April 18, 2012 1:54:00 PM
बेनामी salil ने कहा…
जवाब देंहटाएंइन पंक्तियों में प्रेमी के प्रेम-अर्पण की प्रतिक्रिया में प्रेमिका का समर्पण इंगित है जो गृहस्थी (घर-घूले) की कामना कर रहा है. संभवतः भाव स्पष्ट नहीं हो पाया. आगे से ध्यान रखूंगा कि कथ्य स्पष्ट हो सके.
आपका बहुत-बहुत आभार.
Wednesday, April 18, 2012
‘तुम मुस्कायीं’ बहुत सुंदर गीत है, बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएं