शनिवार, 28 जनवरी 2012

नवगीत: शीत से कँपती धरा --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

शीत से कँपती धरा

संजीव 'सलिल'

*
शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप

सियासत की आँधियों में उड़ाएँ सच की पतंग
बाँध जोता और माँझा, हवाओं से छेड़ जंग
उत्तरायण की अँगीठी में बढ़े फिर ताप-
आस आँगन का बदल रवि-रश्मियाँ दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप

मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप

पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

14 टिप्‍पणियां:

  1. achal verma ✆
    ekavita


    नई भोर की किरण अनूठी
    हीरे की जैसे हो अंगूठी
    चमक रही है नयन नयन में
    जैसे जलती एक अंगीठी ||


    अचल वर्मा

    जवाब देंहटाएं
  2. deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com

    ekavita


    उत्तम कविता, उत्तम चित्र !

    जवाब देंहटाएं
  3. vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
    ekavita


    आ० कविवर ’सलिल" जी,

    कविता अच्छी लगी, भाव बहुत सुन्दर हैं । विशेषकर ...

    शीत से कँपती धरा की
    ओढ़नी है धूप
    कोहरे में छिप न पाये
    सूर्य का शुभ रूप

    अतिशय बधाई ।

    विजय

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  4. dks poet ✆

    ekavita


    आदरणीय आचार्य जी,
    इस सुंदर नवगीत के लिए साधुवाद स्वीकार करें।
    सादर

    धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

    जवाब देंहटाएं
  5. - pratapsingh1971@gmail.com
    आदरणीय आचार्य जी

    बहुत ही सुन्दर !


    मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
    न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
    लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
    रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर.......अति सुन्दर !

    साधुवाद !

    सादर
    प्रताप

    जवाब देंहटाएं
  6. Amitabh Tripathi ✆ द्वारा yahoogroups.com

    ekavita


    आदरणीया आचार्य जी,
    अच्छा नवगीत! पहला बंद सुन्दर लगा|
    सादर
    अमित

    जवाब देंहटाएं
  7. धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’शनिवार, जनवरी 28, 2012 12:30:00 am

    धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’Jan 20, 2012 10:29 PM

    इस सुंदर नवगीत के लिए आचार्य जी को बहुत बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  8. sharda monga (aroma)Jan 21, 2012 02:35 AM

    तथास्तु.
    आशावादी नवगीत.सुदर.

    जवाब देंहटाएं
  9. परमेश्वर फुँकवालशनिवार, जनवरी 28, 2012 12:32:00 am

    परमेश्वर फुँकवालJan 21, 2012 04:45 AM

    बहुत सुन्दर शुभकामनाएँ हैं आ. संजीव जी.

    जवाब देंहटाएं
  10. बेनामीJan 21, 2012 10:50 PM

    सुंदर नवगीत के लिए आचार्य जी को बहुत बहुत बधाई

    Prabhudayal

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  11. विमल कुमार हेड़ाशनिवार, जनवरी 28, 2012 12:33:00 am

    प्रत्‍युत्तर दें
    बेनामीJan 22, 2012 08:58 AM

    सुन्दर रचना !

    अवनीश तिवारी
    विमल कुमार हेड़ा।Jan 22, 2012 07:35 PM

    शीत से कँपती धरा की ओढ़नी है धूप
    कोहरे में छिप न पाये सूर्य का शुभ रूप
    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ अच्छे नवगीत के लिये आचार्य संजीव जी को बहुत बहुत बधाई।
    धन्यवाद।
    विमल कुमार हेड़

    जवाब देंहटाएं
  12. मोहिनी चोरडियाशनिवार, जनवरी 28, 2012 12:33:00 am

    मोहिनी चोरडियाJan 23, 2012 02:28 AM

    आशा की नई किरण दिखाती रचना |

    जवाब देंहटाएं
  13. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.comरविवार, जनवरी 29, 2012 10:11:00 am

    sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com

    ekavita


    Bhaai amit ji,
    Achaary ji pulling hain .
    Kamal

    जवाब देंहटाएं
  14. shar_j_n ✆ shar_j_n@yahoo.com

    ekavita


    आदरणीय आचार्य जी,
    बहुत ही सुन्दर! आनंद आ गया!

    शीत से कँपती धरा की
    ओढ़नी है धूप --- वाह!

    कोहरे में छिप न पाये
    सूर्य का शुभ रूप

    स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
    कोशिशों का सूप --- क्या कल्पना है !

    रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर -- वाह !


    पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
    शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
    क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
    आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
    समेटे बाधाएँ अपनी
    कोख में अब कूप --- इस पूरे बंद में क्या क्या समाहित नहीं है! -- मुहावरे, कल्पनाएँ, पौराणिक कथाएँ ! जय हो!
    *
    आदरणीय अचल जी,
    आपने भी कितना सुन्दर बंद लिखा है उत्तर में !

    सादर शार्दुला

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