हास्य कुंडली
संजीव 'सलिल'
*
कल्लू खां गोरे मिले, बुद्धू चतुर सुजान.
लखपति भिक्षा माँगता, विद्यापति नादान..
विद्यापति नादान, कुटिल हैं भोला भाई.
देख सरल को जटिल, बुद्धि कवि की बौराई.
कलमचंद अनपढ़े, मिले जननायक लल्लू.
त्यागी करते भोग, 'सलिल' गोरेमल कल्लू..
*
अचला-मन चंचल मिला, कोमल-चित्त कठोर.
गौरा-वर्ण अमावसी, श्यामा उज्जवल भोर..
श्यामा उज्जवल भोर, अर्चना करे न पूजा.
दृष्टिविहीन सुनयना, सुलभा सदृश न दूजा..
मधुरा मृदुल कोकिला, कर्कश दिल दें दहला.
रक्षा करें आक्रमण, मिलीं विपन्ना कमला..
*
कहाँ कै मरे कैमरे, लेते छायाचित्र.
छाया-चित्र गले मिलें, ज्यों घनिष्ठ हों मित्र..
ज्यों घनिष्ठ हों मित्र, रात-दिन चंदा-सूरज.
एक बिना दूजा बेमानी, ज्यों धरती-रज..
लोकतंत्र में शोकतंत्र का राज्य है यहाँ.
बेहयाई नेता ने ओढ़ी, शर्म है कहाँ?..
*
जल न जलन से पायेगा, तू बेहद तकलीफ.
जैसे गजल कहे कोइ, बिन काफिया-रदीफ़..
बिन काफिया-रदीफ़, रुक्न-बहरों को भूले.
नहीं गाँव में शेष, कजरिया सावन झूले..
कहे 'सलिल कविराय', सम्हाल जग में है फिसलन.
पर उन्नति से खुश हो, दिल में रह ना जलन..
*
संजीव 'सलिल'
*
कल्लू खां गोरे मिले, बुद्धू चतुर सुजान.
लखपति भिक्षा माँगता, विद्यापति नादान..
विद्यापति नादान, कुटिल हैं भोला भाई.
देख सरल को जटिल, बुद्धि कवि की बौराई.
कलमचंद अनपढ़े, मिले जननायक लल्लू.
त्यागी करते भोग, 'सलिल' गोरेमल कल्लू..
*
अचला-मन चंचल मिला, कोमल-चित्त कठोर.
गौरा-वर्ण अमावसी, श्यामा उज्जवल भोर..
श्यामा उज्जवल भोर, अर्चना करे न पूजा.
दृष्टिविहीन सुनयना, सुलभा सदृश न दूजा..
मधुरा मृदुल कोकिला, कर्कश दिल दें दहला.
रक्षा करें आक्रमण, मिलीं विपन्ना कमला..
*
कहाँ कै मरे कैमरे, लेते छायाचित्र.
छाया-चित्र गले मिलें, ज्यों घनिष्ठ हों मित्र..
ज्यों घनिष्ठ हों मित्र, रात-दिन चंदा-सूरज.
एक बिना दूजा बेमानी, ज्यों धरती-रज..
लोकतंत्र में शोकतंत्र का राज्य है यहाँ.
बेहयाई नेता ने ओढ़ी, शर्म है कहाँ?..
*
जल न जलन से पायेगा, तू बेहद तकलीफ.
जैसे गजल कहे कोइ, बिन काफिया-रदीफ़..
बिन काफिया-रदीफ़, रुक्न-बहरों को भूले.
नहीं गाँव में शेष, कजरिया सावन झूले..
कहे 'सलिल कविराय', सम्हाल जग में है फिसलन.
पर उन्नति से खुश हो, दिल में रह ना जलन..
*
rakesh518@yahoo.com
जवाब देंहटाएंekavita
मान्य सलिलजी,
सुन्दर रचनायें. पहली दो कुंदलियाँ पढ़ कर श्रद्धेय काका हाथरसी की याद आ गई. उनकी रचना--नाम बड़े और दर्शन छोटे-- ईकविता के सभी सदस्यों से बाँट रहा हूँ. सादर
राकेश
नाम बड़े दर्शन छोटे / काका हाथरसी
नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।
कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।
मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,
श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में-
ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।
कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।
देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,
सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ।
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे,
धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे।
कहं ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे,
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे।
दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल,
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल।
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं,
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भोंक रहे हैं।
‘काका’ छ्ह फिट लंबे छोटूराम बनाए,
नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए।
पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल,
बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी।
कहं ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा,
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा।
दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले,
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले।
कहं ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे,
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे।
चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,
श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध।
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,
इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते,
कहं ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं,
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।
बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल,
सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल।
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी-
निकले बेटा आसाराम निराशावादी।
कहं ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते,
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते।
आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद,
जवाब देंहटाएंकार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद।
भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे,
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे।
कहं ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते,
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते।
शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर,
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर।
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली।
कहं ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने।
तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान,
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई।
कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी-
दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी।
खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन,
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन।
चिलगोजा-से नैन, शांता करती दंगा,
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा।
कहं ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है,
दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है।
कलीयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ,
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ।
बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी,
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी।
‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता,
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता।
अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम,
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम।
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खुब मिलाया,
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया।
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा-
पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा।
पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान,
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान।
घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका,
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा।
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं,
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं।
सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ।
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,
प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया।
कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते,
त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते।
रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,
लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।
बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।
कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।
दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय,
गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय।
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण-
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण।
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे,
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे।
रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र,
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र।
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती,
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती,
कहं ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी,
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी।
नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य।
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा,
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा।
कहं ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की,
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की।
आ० सलिल जी
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर और मजेदार हास्य कुन्डलियाँ लगी। मजा आ गया। बधाई।
सन्तोष कुमार सिंह
omtiwari24@gmail.com द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलिल जी,
अत्यंत सुंदर कुंडलियों के लिए बधाई । आदरणीय राकेश जी द्वारा दी गई काका की कुंडलियां भी इस बहाने पुनः पढ़ने को मिल गईं । लेकिन काव्यप्रेमियों से क्षमा चाहते हुए एक बात कहना चाहूंगा कि वास्तव में काका ने कभी कुंडलियां लिखी ही नहीं । जहां तक मैं समझता हूं, कुंडलियां जिस शब्द से शुरू होती हैं उसी पर समाप्त होनी चाहिएं । बिल्कुल सिंहावलोकन सवैये की भांति । धन्यवाद ।
सादर
ओमप्रकाश तिवारी
sanjiv verma salil ✆
जवाब देंहटाएंekavita
आपसे सहमत हूँ
- pratapsingh1971@gmail.com
जवाब देंहटाएंआदरणीय आचार्य जी
हास्य कुंडलिय़ाँ पढ़कर आनन्द आ गया.
पहली दो कुंडलियाँ तो बस कमाल की हैं.
ढ़ेरों बधाईयाँ !
सादर
प्रताप
shar_j_n ✆ shar_j_n@yahoo.com
जवाब देंहटाएंekavita
आदरणीय आचार्य जी,
कितने दिनों बाद आपको पढ़ा, चाहे हास्य ही सही! मन प्रसन्न हो गया!
काका सम लिखना भला
किसके बस की बात
एक सलिल जो लिख रहे
अनुपम दिन और रात!
सादर शार्दुला
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
जवाब देंहटाएंekavita
Adarneey Acharya ji,,
Kewal hasya nahee bahut saargarbhit yamak-kundaliyaan . Sadhuwad
Kamal
Jiski jesi chah ikattha besa karta
जवाब देंहटाएं