रविवार, 13 नवंबर 2011

गीत : राह हेरता... संजीव 'सलिल'


गीत

मीत तुम्हारी राह हेरता...

संजीव 'सलिल'

*

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

सुधियों के उपवन में तुमने

वासंती शत सुमन खिलाये.

विकल अकेले प्राण देखकर-

भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये.

चाह जगा कर आह हुए गुम

मूँदे नयन दरश करते हम-

आँख खुली तो तुम्हें न पाकर

मन बौराये, तन भरमाये..

मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर

मन ही मन में तुम्हें टेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में

तुम्हें खोजकर हार गया हूँ.

बाहर खोजा, भीतर पाया-

खुद को तुम पर वार गया हूँ..

नेह नर्मदा के निनाद सा

अनहद नाद सुनाते हो तुम-

ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया!

पार न पाकर पार गया हूँ.

ताना-बाना बुने बुने कबीरा

किन्तु न घिरता, नहीं घेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*****************

दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट,कॉम

5 टिप्‍पणियां:

  1. deepti gupta
    drdeepti25@yahoo.co.in


    मूँदे नयन दरश करते हम-

    आँख खुली तो तुम्हें न पाकर

    मन बौराये, तन भरमाये..

    मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर

    मन ही मन में तुम्हें टेरता.

    मीत तुम्हारी राह हेरता...

    बाहर खोजा, भीतर पाया-

    खुद को तुम पर वार गया हूँ..

    संजीव जी,

    अति सुंदर भाव, सुन्दर शब्द गुंथन .....!

    बधाई !
    दीप्ति

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  2. vijay2@comcast.net ✆ द्वारा yahoogroups.com

    आ० संजीव ’सलिल’ जी,

    आपकी कविता पढ़ कर आनन्द आया । विशेषकर....



    आँख खुली तो तुम्हें न पाकर

    मन बौराये, तन भरमाये..

    मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर

    मन ही मन में तुम्हें टेरता.

    मीत तुम्हारी राह हेरता...

    विजय निकोर

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  3. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com

    आ० आचार्य जी ,
    भारतीय दर्शन का सार निचोड़ता हुआ अत्यंत पभावी गीत के लिये
    आपको साधुवाद
    कमल

    जवाब देंहटाएं
  4. Pratap Singh ✆ pratapsingh1971@gmail.com द्वारा yahoogroups.com

    pratapsingh1971@gmail.com


    आदरणीय आचार्य जी

    दिव्य गीत ! अति सुन्दर !

    सादर
    प्रताप

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