रविवार, 4 सितंबर 2011

दोहा सलिला: यथा समय हो कार्य... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
यथा समय हो कार्य...
-- संजीव 'सलिल'
*
जो परिवर्तित हो वही, संचेतित सम्प्राण.
जो किंचित बदले नहीं, वह है जड़ निष्प्राण..

जड़ पल में होता नहीं, चेतन यह है सत्य.
जड़ चेतन होता नहीं, यह है 'सलिल' असत्य..

कंकर भी शत चोट खा हो, शंकर भगवान.
फिर तो हम इंसान हैं, ना सुर ना हैवान..

माटी को शत चोट दे, गढ़ता कुम्भ कुम्हार.
चलता है इस तरह ही, सकल सृष्टि व्यापार..

रामदेव-अन्ना बने, कुम्भकार दें चोट.
धीरे-धीरे मिटेगी, जनगण-मन की खोट..

समय लगे लगता रहे, यथा समय हो कार्य.
समाधान हो कोई तो, हम सबको स्वीकार्य..

तजना आशा कभी मत, बन न 'सलिल' नादान..
आशा पर ही टँगा है, आसमान सच मान.


Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

3 टिप्‍पणियां:

  1. परस परस की बात है जो भर देता प्राण
    पारस पग के स्पर्श से जीवित हों पाषाण

    जड़ में भी तो चेतना, यही बताता ज्ञान
    अंत:स की आंखें खुलें, हो सकता अनुमान

    सादर

    राकेश

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  2. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaरविवार, सितंबर 04, 2011 9:01:00 pm

    आ० आचार्य जी ,
    सभी दोहे सामयिक और सार्थक |
    विशेष-

    कंकर भी शत चोट खा हो, शंकर भगवान.
    फिर तो हम इंसान हैं, ना सुर ना हैवान..

    माटी को शत चोट दे, गढ़ता कुम्भ कुम्हार.
    चलता है इस तरह ही, सकल सृष्टि व्यापार..
    सादर,
    कमल

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय आचार्य जी,
    सुंदर दोहों के लिए साधुवाद स्वीकार करें।
    सादर

    धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

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