गुरुवार, 1 सितंबर 2011

सावन गीत: कुसुम सिन्हा -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना 
मेरी एक कविता
फिर आया मदमाता सावन

कुसुम सिन्हा
*
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                             उमड़ घुमड़ कर काले बदल
                             नीले नभ में घिर आये
                               नाच नाचकर  बूंदों में ढल
                              फिर धरती पर छितराए
सपने घिर आये फिर मन में
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               लहर लहरकर  चली हवा  भी
                               पेड़ों को झकझोरती
                              बार बार फिर कडकी बिजली
                               चमक चमक चपला चमकी
सिहर सिहर  कर भींग भींग
धरती लेने अंगड़ाई लगी
                            वृक्ष नाच कर झूम  झूमकर
                            गीत लगे कोई गाने
                             हवा बदन छू छू  कर जैसे
                              लगी है जैसे  क्या कहने
नाच नाचकर  बूंदें जैसे
स्वप्न सजाने  मन में लगी
                               अम्बर से  सागर के ताल तक
                               एक वितान सा बूंदों का
                              लहरों के संग संग  अनोखा
                               नृत्य  हुआ फिर  बूंदों का
फिर आया मदमाता सावन
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               तृप्त  हो रहा था तन मन भी
                               प्यासी  धरती  झूम उठी
                             
  सरिता के तट  को छू छू कर
                                चंचल लहरें  नाच उठीं
सोंधी गंध उठी  धरती से
फिर बूंदों की झड़ी लगी
*
 
सावन गीत:                                                                                    
मन भावन सावन घर आया
संजीव 'सलिल'
*
मन भावन सावन घर आया
रोके रुका न छली बली....
*
कोशिश के दादुर टर्राये.
मेहनत मोर झूम नाचे..
कथा सफलता-नारायण की-
बादल पंडित नित बाँचे.

ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली....
*
सपनाते सावन में मिलते
अकुलाते यायावर गीत.
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं
टप-टप बूँदें नव संगीत.

आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले नव गंध मिली....
*
हलधर हल धर शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं.
हल कर ले सारे सवाल मिल-
बाकी रहे बबाल नहीं.

उम्मीदों के बादल गरजे
बाधा की चमकी बिजली....
*
भौजी गुझिया-सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ.
छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
सासू जी मन-मन मुस्कायें.

छाछ-महेरी के सँग खाएँ
गुड़ की मीठी डली लली....
*
नेह निमंत्रण पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के-
श्वास-श्वास नंदन कानन.

मिलते-मिलते आस गुजरिया
के मिलने की घड़ी टली....
*
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल.
चलना रपट न जाना- मिल-जुल
पार करो पथ की फिसलन.

लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली
नज़र नज़र से मिली भली....
*
गले मिल गये पंचतत्व फिर
जीवन ने अंगड़ाई ली.
बाधा ने मिट अरमानों की
संकुच-संकुच पहुनाई की.

साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निन्दिया रूठ जली....

**********

20 टिप्‍पणियां:

  1. Dr.M.C. Gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com Hindienglishpo.गुरुवार, सितंबर 01, 2011 6:50:00 pm

    सलिल जी,

    आपके काव्य की ऊँचाइयों का बयान करना मुश्किल है. इस कविता में अनेक रँग भरे हैं--मौसम के भी, पारिवारिक जीवन के भी, दार्शनिकता के भी.

    --कुछ अभिनव प्रयोग दिखे:


    कोशिश के दादुर टर्राये.
    मेहनत मोर झूम नाचे..

    और


    उम्मीदों के बादल गरजे
    बाधा की चमकी बिजली....


    --गाँवों से पलायन का बहुत अनूठे तरीके से आपने किया है--


    हलधर हल धर शहर न जाये
    सूना हो चौपाल नहीं.
    हल कर ले सारे सवाल मिल-
    बाकी रहे बबाल नहीं.


    -- पारिवारिक माहौल का कितना सहज वर्णन है--


    भौजी गुझिया-सेव बनाये,
    देवर-ननद खिझा-खाएँ.
    छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
    सासू जी मन-मन मुस्कायें.

    छाछ-महेरी के सँग खाएँ
    गुड़ की मीठी डली लली....


    --अंतिम पद में गहन दार्शनिकता झलकती है:



    गले मिल गये पंचतत्व फिर
    जीवन ने अंगड़ाई ली.
    बाधा ने मिट अरमानों की
    संकुच-संकुच पहुनाई की.


    सब मिला कर एक अनूठा मिश्रण है.

    --ख़लिश

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  2. Acharya Ji,

    Saavan ki phuhaaroN me jhumaa diya GEET ki mohakataa bemisaal hai apne pratibimboN ke liye, upmaao ke liye.

    Regards,

    Mukesh K.Tiwari
    Sent from BlackBerry® on Airtel

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  3. आ० सलिल जी

    मन भावन लगा सावन का यह गीत।
    ढेर सारी बधाई।
    सन्तोष कुमार सिंह

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  4. man bhavan yeh geet suhaaya
    hum sabke hai man ko bhaaya
    bayaar chali, bahaar chali
    Aviral 'salil' ki dhhaar chali
    Dr Pradeep Sharma Insaan MD,FAMS
    Professor, RP Centre
    AIIMS New Delhi,INDIA

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  5. साधा अपनों को सपनों ने

    बैरिन निन्दिया रूठ जली....

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  6. बहुत मन मोहक , बहुत ही मीठा गीत |


    अचल वर्मा

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  7. Mukesh Srivastava ✆ mukku41@yahoo.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 7:55:00 pm

    कुसुम जी व संजीव जी,
    सावन के मनभावन मौसम से लोगों के मन पुलकित हुए हों या न हुए हों
    पर इस मंच के कवियों के मन ज़रूर पुलकित हो गए होंगे.
    दोनों को बधाई

    मुकेश इलाहाबादी

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  8. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 7:56:00 pm

    आ० आचार्य जी ,
    सावन पर मधुर रचना पढ़ मन मयूर नाच उठा | आपने इसे समर्पित तो किया कुसुम जी को
    पर उसका प्यारा भैय्या इसे पहले ही ले उड़ा | इस डकैती के लिये क्षमा |
    सादर
    कमल

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  9. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 7:56:00 pm

    प्रिय बहन कुसुम जी,
    सावन पर आपकी मनभावन कविता के लिये बधाई |
    बहुत सुन्दर और सरस छन्द हैं |
    सस्नेह
    कमल भाई

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  10. kavita achhi lagi.
    prayaas banay rakhein.
    satish chopra

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  11. आ० कुसम जी
    सावन का गीत मन भाया, बहुत पसंद आया। बधाई।
    सन्तोष कुमार सिंह

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  12. आ० कुसुम जी

    सुन्दर कविता के लिए बधाई

    विजय निकोर

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  13. कुसुम जी का :
    फिर आया मदमाता सावन
    फिर बूंदों की झड़ी लगी
    फिर
    आशा के पौधे में फिर से
    कुसुम खिले नव गंध मिली.... आचार्य सलिल की पंक्ति


    कितना सटीक ,
    इन्हें पढ़कर तब अचल को लगा
    कागज़ के पन्नों पर :

    सावन तो आता है रोज ही
    रोज कली खिल जाती है
    जैसे जैसे खुले पंखुड़ी
    ये सुगंध फैलाती है
    दूर दूर तक ये सुगंध फिर
    न्योता सा पहुंचाता है
    खींचा चलाआता है भंवरा
    फूलों पर मंडराता है
    देख देख ये खेल श्याम घन
    जोर जोर चिल्लाता है
    आँख दिखाता शोर मचाता
    दौड़ा दौड़ा आता है
    खेल शुरू हो जाता है.......

    अचल वर्मा

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  14. priy achal ji
    aapko meri kavita achhi lagi jankar bahut khushi hui aaplogo se protsahan pakar hi to likhti hun nahi to man hi nahi kare likhne ka
    dhanyawad
    kusum

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  15. priy sanjiv ji
    etni sundar kavita likhna apne aap me bahut badi bat hai apki vidwath ko mera shat shat naman
    kusum

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  16. अग्रज हों या अग्रजा दोनों आदरणीय.
    बालोचित उपहार ले हुआ उपस्थित भीत
    स्वीकारें तो हो सकूँ मैं सचमुच ही धन्य
    शुभाशीष पा सकूँ तो होगा भाग्य अनन्य.

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  17. आदरणीय सलिल जी,
    आप जो शब्दों के धनी हैं, आशुकवि हैं, उसका सच में कोई पार नहीं:)
    बार बार "सुन्दर! सुन्दर!" क्या लिखूँ आपको!
    ======
    आदरणीया कुसुम दी,
    आपका लिखा भी पढ़ा. भला लगा!

    सादर शार्दुला

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  18. आहा, इस रचना ने सावन के दृश्यों को आखों के सामने कर दी है , बिम्ब सभी एक से बढ़कर एक है, बहुत ही मोहक कृतिहै आचार्य जी, बधाई स्वीकार करें |

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  19. //कथा सफलता-नारायण की-
    बादल पंडित नित बाँचे.// .. अद्भुत आचार्यजी..



    //हलधर हल धर शहर न जाये
    सूना हो चौपाल नहीं.
    हल कर ले सारे सवाल मिल-
    बाकी रहे बबाल नहीं.// .......... क्या ही आशावादिता और क्या ही संप्रेषण ... साधु-साधु ..



    //गले मिल गये पंचतत्व फिर
    जीवन ने अंगड़ाई ली.
    बाधा ने मिट अरमानों की
    संकुच-संकुच पहुनाई की.// ........... वाह-वाह .. गये गये, नूतन आये.. .न्यौतें-गायें ..



    बहुत-बहुत बधाई .... सादर

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