गुरुवार, 1 सितंबर 2011

 : विषय एक रचनाएँ तीन: 

ग्राम से पलायन
१. याद आती तो होगी
सन्तोष कुमार सिंह, मथुरा
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।
सुख में माँ को भूल गया तो, कोई बात नहीं।
नहीं बना बूढ़े की लाठी,  मन आघात नहीं।।
ममता तुझको भी विचलित कर जाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
गली गाँव की रोज राह तेरी ही तकती हैं।
इंतजार में बूढ़ी अँखियाँ, निशदिन थकती हैं।।
कभी हृदय को माँ की मूरत, भाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।

देख गाँव के लोग न जाने क्या-क्या कहते हैं।
ये बेशर्म अश्रु भी दुःख में, पुनि-पुनि बहते हैं।।
कभी भूल से खबर पवन पहुँचाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
यादें कर-कर घर के बाहर, बिरवा सूख गया।
सुख का पवन न अँगना झाँके, ऐसा रूठ गया।।
माटी की सोंधी खुशबू दर, जाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
बचपन के सब मित्र पूछते, मुझको आ-आकर।
लोटें सभी बहारें घर में,  नहीं तुझे पाकर।।
दूषित हवा जुल्म शहरों में, ढाती तो होगी।
बेटा त्यागा गाँव, याद पर आती तो होगी।।
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२. बापू यादों से तो केवल पेट न भरता है


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश

बापू यादों से तो केवल पेट न भरता है
युवक नुकरिया बिन गाँवों में भूखा मरता है
तूने गिरवी खेत रखा तो ही मैं पढ़ पाया
कर्ज़े का वह बोझ तुझे नित व्याकुल करता है

अगर शहर में काम मिले तो मैं पैसा भेजूँ
कर्ज़ा उतरे तो घर को मैं इक गैय्या ले दूँ
बहना हुई बड़ी मैं उसकी शादी करने को
दान-दहेज किए खातिर सामान तनिक दे दूँ

माँ बीमार पड़ी है उसको भी दिखलाना है
चूती है छत उस पर भी खपरैल जमाना है
सूची लंबी है करने को काम बहुत बाकी
पहले पैर टिकाऊँ, तुमको शहर घुमाना है

मानो मेरी बात न अपने मन में दुख पाओ
गाँव नहीं अब गाँव रहे तुम याद न दिलवाओ
पेट भरे ऐसा जब साधन कोई नहीं मिलता
तो फिर बापू गाँव मुझे वापस न बुलवाओ.

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३. परवश छोड़ा गाँव.....

संजीव 'सलिल'
*
परवश छोड़ा गाँव याद बरबस आ जाती है...
*
घुटनों-घुटनों रेंग जहाँ चलना मैंने सीखा.
हर कोई अपना था कोई गैर नहीं देखा..
चली चुनावी हवा, भाई से भाई दूर हुआ.
आँखें रहते हर कोई जाने क्यों सूर हुआ?
झगड़े-दंगे, फसल जलाई, तभी गाँव छोड़ा-
यह मत सोचो जन्म भूमि से अपना मुँह मोड़ा..
साँझ-सवेरे मैया यादों में दुलराती है...
*
यहाँ न सुख है, तंग कुठरिया में दम घुटता है.
मुझ सा हर लड़का पढ़ाई में जी भर जुटता है..
दादा को भाड़ा देता हूँ, ताने सुनता हूँ.
घोर अँधेरे में भी उजले सपने बुनता हूँ..
छोटी को संग लाकर अगले साल पढ़ाना है.
तुम न रोकना, हम दोनों का भाग्य बनाना है..
हर मुश्किल लड़ने का नव हौसला जगाती है...
*
रूठा कब तक भाग्य रहेगा? मुझको बढ़ना है.
कदम-कदम चल, गिर, उठ, बढ़कर मंजिल वरना है..
तुमने पीना छोड़ दिया, अब किस्मत जागेगी.
मैया खुश होगी, दरिद्रता खुद ही भागेगी..
बाद परीक्षा के तुम सबसे मिलने आऊँगा.
रेहन खेती रखी नौकरी कर छुडवाऊँगा..
जो श्रम करता किस्मत उस पर ही मुस्काती है...
*
यहाँ-वाहन दोनों जगहों पर भले-बुरे हैं लोग.
लालच और स्वार्थ का दोनों जगह लगा है रोग..
हमको काँटे बचा रह पर चलते जाना है.
थकें-दुखी हों तो हिम्मत कर बढ़ते जाना है..
मुझको तुम पर गर्व, भरोसा तुम मुझ पर रखना.
तेल मला करना दादी का दुखता है टखना..
जगमग-जगमग यहाँ बहुत है, राह भुलाती है...
*
दिन में खुद पढ़, शाम पढ़ाने को मैं जाता हूँ.
इसीलिये अब घर से पैसे नहीं मँगाता हूँ.  
राशन होगा ख़तम दशहरे में ले आऊँगा.
तब तक जितना है उससे ही काम चलाऊँगा..
फ़िक्र न करना अन्ना का आन्दोलन ख़त्म हुआ.
अमन-चैन से अब पढ़ पाऊँ करना यही दुआ.
ख़त्म करूँ पाती, सुरसा सी बढ़ती जाती है...

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12 टिप्‍पणियां:

  1. santosh bhauwala ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 6:57:00 pm

    आदरणीय संतोष कुमार जी

    बहुत ही मार्मिक रचना सीधी दिल की राह पकडती dher badhaaiyaan
    sadar संतोष bhauwala

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  2. श्री मान सन्तोष जी,

    गांव की याद दिलाती एक अभूतपूर्व रचना।

    हम गांव में तो नहीं रहे पर आपकी रचना ने महसूस करवा दिया।

    बधाई!

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  3. Mukesh Srivastava ✆ mukku41@yahoo.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 6:59:00 pm

    संतोष जी,
    आज बीस साल हो गए घर छोड़े किन्तु अभी भी अपना घर, गली, गाँव और दोस्त यार
    दोस्त उसी शिद्दत से याद आते हैं जिस शिद्दत से बीस साल पहले.
    आपकी कविता ने उस भाव को और गाढ़ा कर दिया.
    एक बेहद भावपूर्ण कविता के लिए ढेरों बधाई.

    मुकेश इलाहाबादी

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  4. प्रकृति सरल है ,ईश्वर को भी छल -छिद्र पसंद नहीं फिर ऐसे सरल,सुन्दर
    गीत पर कौन न बलिहारी हो जाये |
    सदेव की भांति सीधे दिल से निकले गीत के लिए ,संतोष जी , बधाई |
    -महिपाल

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  5. shriprakash shukla ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 7:00:00 pm

    आदरणीय संतोष जी,
    अति भावपूर्ण आत्म को छूता हुआ मधुर गीत | एक अटूट सत्य | गाँव छोड़े ५३ वर्ष बीत गए लेकिन अब भी जब गाँव का मेरे मित्र का बालक दूर भाष पर पूछता है कि " दद्दू छुट्टियों में घर नहीं आओगे ? " तो आँखें छलक आती हैं | कल्पना करने लगता हूँ कि अब गाँव कैसा होगा ?
    आप को इस मार्मिक गीत के लिए ढेर सी बधाईयाँ |
    सादर
    श्रीप्रकाश शुक्ल

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  6. priy santosh ji

    bahut hi marmik kavita ma ke man ke dukh ko koi maa hi samajh sakti hai bahut marmik bahut sundar ankhen bhar aai
    kusum

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  7. Dr.M.C. Gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 7:02:00 pm

    संतोष कुमार जी,

    बहुत सुंदर लिखा है. "चिट्ठी आई है की याद आ गई"

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  8. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaगुरुवार, सितंबर 01, 2011 7:03:00 pm

    आ० संतोष कुमार जी
    इस अंतर्ग्राही मार्मिक गीत के लिये साधुवाद!
    कमल

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  9. हृदयद्रावक रचना. बधाई.

    वाह.. वाह.. खलिश जी!
    सिक्के के दूसरे पहलू को आपने बखूबी प्रस्तुत किया है. बधाई.

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  10. अति सुन्दर! अति सुन्दर!

    आदरणीय संतोष जी, ख़लिश जी एवं आचार्य जी,
    तीनों नमन स्वीकारें!
    मन तृप्त हो गया तीनों रचनाएँ पढ़ के!

    सादर शार्दुला

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