शनिवार, 2 जुलाई 2011

-: मुक्तिका :- सूरज - संजीव 'सलिल'

-: मुक्तिका :-                                                                                   
सूरज - १
संजीव 'सलिल'
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..

धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..

पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..

अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..

भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..

नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.

करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..

*
सूरज - २ 

चमकता है या चमकाता है सूरज?
बहुत पूछा न बतलाता है सूरज..

तिमिर छिप रो रहा दीपक के नीचे.
कहे- 'तन्नक नहीं भाता है सूरज'..

सप्त अश्वों की वल्गाएँ सम्हाले
कभी क्या क्लांत हो जाता है सूरज?

समय-कुसमय सभी को भोगना है.
गहन में श्याम पड़ जाता है सूरज..

न थक-चुक, रुक रहा, ना हार माने, 
डूब फिर-फिर निकल आता है सूरज..

लुटाता तेज ले चंदा चमकता.
नया जीवन 'सलिल' पाता है सूरज..

'सलिल'-भुजपाश में विश्राम पाता.
बिम्ब-प्रतिबिम्ब मुस्काता है सूरज..
*
सूरज - ३

शांत शिशु सा नजर आता है सूरज.
सुबह सचमुच बहुत भाता है सूरज..

भरे किलकारियाँ बचपन में जी भर.
मचलता, मान भी जाता है सूरज..

किशोरों सा लजाता-झेंपता है.
गुनगुना गीत शरमाता है सूरज..

युवा सपने न कह, खुद से छिपाता.
कुलाचें भरता, मस्ताता है सूरज..

प्रौढ़ बोझा उठाये गृहस्थी का.
देख मँहगाई डर जाता है सूरज..

चांदनी जवां बेटी के लिये वर
खोजता है, बुढ़ा जाता है सूरज..

न पलभर चैन पाता ज़िंदगी में.
'सलिल' गुमसुम ही मर जाता है सूरज..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

5 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य जी,

    जवां,
    बेटी के लिये वर
    चाहे सूरज तलाशे
    या कोई और
    बुढ़ा जाता है
    अक्सर
    चाँदनी के भाग्य
    सुबह की तलाश में
    अंधेरा ही आता है
    और वरा जाता है

    बहुत अच्छे लगे तीनों ही प्रारूप सूरज के बहाने आदमी को व्यक्त करते।

    सद्भाव सहित

    मुकेश कुमार तिवारी

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  2. sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavitaरविवार, जुलाई 03, 2011 12:03:00 am

    आ० आचार्य जी,
    अति सुन्दर मुग्धकरी मुक्तिकाएं | यह तो आपने नया संक्षिप्त सूर्य पुराण ही रच दिया |
    आपको अनेकानेक साधुवाद |
    आपने चांदनी को सूरज की कुवाँरी बेटी बता कर वर ढूँढते बुढा जाने की बात कही है |
    शायद धूप और छाया भी उसकी जुड़वां बेटियां हों या उन्हें वह प्रकृति-पुरुष के साथ
    ब्याह चुका है |
    कल्पना के क्षेत्र में आपकी बड़ी गहरी, फ़ैली हुई और दूर तक पहुँच है |
    जहां न जाये रवि तहां जाये कवि (प्रासिद्ध उक्ति )
    अब - जहां जहां जाये रवि पछियाये कवि !
    सूरज बेटियाँ ब्याहने के अनुताप में जल रहा है
    दिन भर ढूँढते युग बीत गये वर नहीं मिलरहा है

    कमल

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  3. प्रिय संजीवजी ,
    सूरज १ -२ -३ बहुत ही प्रभावशाली रचनाएं |.हार्दिक बधाई | भाग १ में लौकिक सूरज (आस्मान्वाले)का लालित्य पूर्ण वर्णन मन को लुभा गया |
    सूरज २ और ३ में बाहरऔर भीतर का सूरज सामानांतर यात्राएं करते हुए कवि के कल्पनाशील और संघर्षशील होने का बहुत सुंदर और सहज प्रमाण है |कल आपके ब्लॉग को भी खंगाला ,प्रभीवित हूँ |इस विधा का नौसिखिया हूँ अतएव,गति धीमी रहती है और अशुद्धियाँ भी हो जाती हैं |-
    महिपाल

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  4. मुक्तक सी झिलमिलाती मुक्तिकाएं....!

    दीप्ति

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  5. priy sanjiv ji
    aaki muktikaon ka to jawab hi nahi hai bahut sundar badhai badhai
    kusum

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