सोमवार, 25 अप्रैल 2011

प्रयोगात्मक मुक्तिका: जमीं के प्यार में... --संजीव 'सलिल'

प्रयोगात्मक मुक्तिका:
जमीं के प्यार में...
संजीव 'सलिल'
*
जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..

उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..

हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..

बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा. 
पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..

हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
जो पाया वही अपना, मन को समझाना भी होता था..

नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..

न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..

हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
जहाँ खुद से मिले खुद 'सलिल' अफसाना भी होता था..
****

5 टिप्‍पणियां:

  1. हया की हरी चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
    हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..


    बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा.
    पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..


    क्या सोच है, वाह सलिल जी क्या कहने बधाई हो इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए

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  2. वाह!!!! उषा, संध्या, मेघ, चाँद ...कमाल की मुक्तिका है| लाजवाब|

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  3. जवाब नहीं आचार्य जी आपकी इस मुक्तिका का ! बधाई स्वीकार करें !

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  4. बहुत खूब आचार्य जी , प्राकृतिक बिम्ब का इतना सार्थक प्रयोग , मन मुग्ध दिल बाग़ बाग़ हो गया, खुबसूरत मुक्तिका |

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  5. //जमीं के प्यार में सूरज को नित आना भी होता था.
    हटाकर मेघ की चिलमन दरश पाना भी होता था..

    उषा के हाथ दे पैगाम कब तक सब्र रवि करता?
    जले दिल की तपिश से भू को तप जाना भी होता था..

    हया रंगीन चादर ओढ़, धरती लाज से सिमटी.
    हुआ जो हाले-दिल संध्या से कह जाना भी होता था..

    बराती थे सितारे, चाँद सहबाला बना नाचा.
    पिता बादल को रो-रोकर बरस जाना भी होता था..

    हुए साकार सपने गैर अपने हो गए पल में.
    जो पाया था वही अपना, ये समझाना भी होता था..

    नहीं जो संग उनके संग को कर याद खुश रहकर.
    'सलिल' नातों के धागों को यूँ सुलझाना भी होता था..

    न यादों से भरे मन उसको भरमाना भी होता था.
    छिपाकर आँख के आँसू 'सलिल' गाना भी होता था..

    हरेक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
    जहाँ खुद से मिले खुद ही वो अफसाना भी होता था..//

    प्रणाम आदरणीय आचार्य जी! प्रकृति चित्रण करती एक बेमिसाल गज़ल........इसकी तारीफ के लिए मेरे सम्मुख मानो शब्दों का अकाल ही पड़ गया है .....आपको बहुत-बहुत बधाई ........

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