रविवार, 20 मार्च 2011

मुक्तिका: हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:                                                                                              

हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की

संजीव 'सलिल'
*
भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..

श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..

चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.

बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..

सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम, चितवन है गुलाबी.
नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..

हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..

पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..

हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..

समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..

**************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

8 टिप्‍पणियां:

  1. प्रशंसनीय.........लेखन के लिए बधाई।
    ==========================
    देश को नेता लोग करते हैं प्यार बहुत?
    अथवा वे वाक़ई, हैं रंगे सियार बहुत?
    ===========================
    होली मुबारक़ हो। सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

    जवाब देंहटाएं
  2. Anoop Bhargava
    ekavita

    विवरण दिखाएँ १०:५७ पूर्वाह्न

    बहुत सुन्दर सलिल जी ....

    सादर
    अनूप


    Anoop Bhargava
    732-407-5788 (Cell)
    609-275-1968 (Home)
    732-420-3047 (Work)

    जवाब देंहटाएं
  3. - dkspoet@yahoo.com


    आदरणीय सलिल जी
    सुंदर मस्तीभरी रचना के लिए साधुवाद।
    सादर

    धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

    जवाब देंहटाएं
  4. Pratibha Saksena
    ekavita

    विवरण दिखाएँ १०:४६ पूर्वाह्न



    आ. सलिल जी ,
    फागुन का बहुत मनोरम प्रभाव पड़ा है कविता पर .
    ललित्यमयी रचना हेतु आभार .

    जवाब देंहटाएं
  5. Dr.M.C. Gupta ✆
    ekavita

    विवरण दिखाएँ ११:२२ पूर्वाह्न (9 घंटों पहले)



    सलिल जी,

    पहले मैं सोचता था आप ग़ज़ल शैली में लिख कर उसे मुक्तिका क्यों कहते हैं. यह रचना पढ़ कर कुछ-कुछ समझ में आ गया. आखिर उर्दू के किस अज़ीम शायर की ग़ज़ल में वह बात मिलेगी जो इस ग़ज़ल / मुक्तिका में है?

    [वैसे व्यक्तिगत स्तर पर मैं अब भी यही मानता हूँ कि इसे ग़ज़ल ही कहना चाहिए. ग़ज़ल एक शैली है काव्य की जिसके मूल अंग काफ़िया, रदीफ़, मतला और मकता हैं. ये सभी इसमें मौज़ूद हैं. पाँचवाँ गुण है हर शेर का स्वतंत्र होना किंतु यह एक अपरिहार्य गुण नहीं है. ऐसी रचना को आलोचक चाहें तो नज़्म अथवा एक-भाव ग़ज़ल कह सक्ते हैं किंतु मेरे लिए रहेगी वह ग़ज़ल . आपने नोट किया होगा कि मैं अपने लिखे को, कतिपय आलोचकों को तकलीफ़ न पहुँचे इसलिए, केवल रचना ही कहता हूँ, हालाँकि अनेक पाठक उन्हें ग़ज़ल के रूप में देखते और पढ़ते हैं].


    निम्न विशेष लगे--





    श्वास ने की रास, अनकहनी कहे नथ कुछ कहे बिन.
    लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..

    चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
    भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?.

    बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
    केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..

    पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
    काम था निष्काम, रति की सुरती के पल माहुरे हैं..

    समर्पण की साधना दुष्कर, 'सलिल' होती सहज भी-
    अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..

    --ख़लिश

    ===================================
    - उद्धृत पाठ दिखाएँ -



    2011/3/20 sanjiv verma



    मुक्तिका:

    हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की

    संजीव 'सलिल'
    *
    भाल पर सूरज चमकता, नयन आशा से भरे हैं.
    मौन अधरों का कहे, हम प्रणयधर्मी पर खरे हैं..

    श्वास ने की रास,अनकहनी कहे नथ कुछ कहेबिन.
    लालिमा गालों की दहती, फागुनी किंशुक झरे हैं..

    चिबुक पर तिल, दिल किसी दिलजले का कुर्बां हुआ है.
    भौंह-धनु के नयन-बाणों से न हम आशिक डरे हैं?

    बाजुओं के बंधनों में कसो, जीवन दान दे दो.
    केश वल्लरियों में गूथें कुसुम, भँवरे बावरे हैं..

    सुर्ख लाल गाल, कुंतल श्याम,चितवन है गुलाबी.
    नयन में डोरे नशीले, नयन-बाँके साँवरे हैं..

    हुआ इंगित कुछ कहीं से, वर्जना तुमने करी है.
    वह न माने लाज-बादल सिंदूरी फिर-फिर घिरे हैं..

    पीत होती देह कम्पित, द्वैत पर अद्वैत की जय.
    काम था निष्काम,रतिकी सुरती के पल माहुरे हैं..

    हुई होली, हो रही, होगी हमेशा प्राण-मन की.
    विदेहित हो देह ने, रंग-बिरंगे सपने करे हैं..

    समर्पण की साधना दुष्कर,सलिल होती सहज भी-
    अबीरी-अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं..

    **************
    Acharya Sanjiv Salil

    http://divyanarmada.blogspot.com




    --
    (Ex)Prof. M C Gupta
    MD (Medicine), MPH, LL.M.,
    Advocate & Medico-legal Consultant
    www.writing.com/authors/mcgupta44

    जवाब देंहटाएं
  6. - manjumahimab8@gmail.com


    सुन्दर अति सुन्दर आपकी यह दोहावली...
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  7. sn Sharma ✆
    ११:५४ पूर्वाह्न

    आ० आचार्य जी,
    होली मुक्तिका ने भाव विभोर कर दिया|
    आपकी लेखनी को शतशः नमन
    विशेष -
    समर्पण की साधना दुष्कर 'सलिल'होती सहज भी
    अबीरी अँजुरी करे अर्पण बिना, हम कब टरे हैं|
    आपको अंजुरी भर भर मेरी हार्दिक शुभ-कामनाएं !
    सादर,
    कमल

    जवाब देंहटाएं
  8. kusum sinha
    ekavita
    ९:५२ अपराह्न

    priy sajiv ji

    aapki kavya pratibha ko naman
    sat sat naman
    bahut khub

    kusum

    जवाब देंहटाएं