मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

एक कविता: धरती ----- संजीव 'सलिल'

एक कविता
धरती 
संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है 
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..

**************

3 टिप्‍पणियां:

  1. धरती जन्म देती है
    सभ्यता को,
    धरती जन्म देती है
    संस्कृति को.

    bahut khub salil ji

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  2. Ashvani Sharma ....
    vah salil ji
    Ashvani Sharma 9:54am Feb 25

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  3. Om Prakash Nautiyal
    11:42pm Feb 23
    बहुत सुन्दर!!

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