दोहा सलिला मुग्ध
संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..
चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..
वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..
दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..
दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..
वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..
रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..
रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..
कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..
रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..
गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..
जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..
**************************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..
चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..
वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..
दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..
दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..
वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..
रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..
रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..
कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..
रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..
गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..
जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..
**************************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
वाह आचार्य जी!
जवाब देंहटाएंइतने सुन्दर,भावभरे श्रृंगार-रस दोहे बनाए
कि पढ़-पढ़कर ललचाये,फिर फिर पढ़े,फिर फिर बौराए|
कितने स्वप्नवत दृश्यों की सैर कराई आपने,यह आपकी ही लेखनी का कमाल है |
साधुवाद
सादर
कमल
वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
जवाब देंहटाएंवार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
वाह वाह आचार्य जी , रुके न निकले प्राण .... यह काफी शानदार रहा ,
सभी के सभी दोहे एक से बढ़कर एक , बहुत बहुत बधाई आचार्य जी इस खुबसूरत दोहों के लिये |
भावपूर्ण , मनोरम दोहे | मन सुरभित और चमत्कृत हुआ |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना सलिल जी.... अद्भुत वर्णन ...वाह
जवाब देंहटाएंआपकी कविता पढ़कर बचपन की पढी एक कविता याद आ रही है :
जवाब देंहटाएं" प्रकृति सदा सुन्दरी , तुम्हारा यौवन अस्थिर धन है "
छवि है ये अनमोल , इसे तो रखना मन में
किन्तु समस्या है ये मन भी बदले क्षण में ||
Your's ,
Achal Verma
क्षण-क्षण बदले रूप, मुग्ध मनचला तभी होता है.
जवाब देंहटाएंस्थिरता पाकर अस्थिर हो प्रीत तुरत खोता है..
परिवर्तन ही जीवन होता, विद्वज्जन कहते हैं.
इसीलिये परिवर्तन का हर कष्ट विहँस सहते हैं..